अब संक्षेप से राजधर्म का विवेचन किया जाता है। लोक में राजन् शब्द क्षत्रियवर्ण वा जातिमात्र का भी वाचक मिलता है। इसी कारण राजा नाम क्षत्रियमात्र के धर्म को भी राजधर्म कह सकते हैं। तथा राजानाम प्रजा के रक्षक मनुष्यों में ईश्वर नाम सर्वोपरि सामर्थ्यवान् स्वामी, विशेष ऐश्वर्य से प्रकाशवान् होने से लोक में प्रसिद्ध राजा का भी वाचक राजन् शब्द है, इस कारण उसके धर्म को भी राज- धर्म कहते हैं। इस प्रकरण में जिस किसी प्रकार दोनों अर्थ घट सकते हैं क्योंकि इन दोनों राजपदवाच्यों का किन्हीं अंशों में साधर्म्य अपेक्षित है। क्योंकि सेनादि में रहने वाले सभी क्षत्रिय प्रजाओं की रक्षा करते हैं, किन्तु एक प्रधान राजा ही सबकी रक्षा नहीं कर सकता। परन्तु तो भी मुख्यकर प्रजारक्षक अधिष्ठाता राजा के ही धर्म का विवेचन अपेक्षित है। राजधर्म की इस ग्रन्थ के सात से नौ अध्याय तक तीन अध्यायों में विवेचना की गयी है। उसका विशेष व्याख्यान तो वहीं देखना चाहिये, यहां केवल धर्म की प्रधानता दिखाते हैं- जिस देश में धर्मपूर्वक राज्य होता है वहां की प्रजा सब सुखों से युक्त और सन्तुष्ट होती है, यही अच्छे राज्य और धर्मात्मा राजा का लक्षण है। राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजाओं में चोर, डाकू, लुटेरे और रिश्वतखोर आदि सूर्य के उदय में अन्धकार के तुल्य नष्ट हो जाते हैं। जब राजा प्रधान वा मुख्य है तो उसी के तुल्य गौण प्रजा भी होगी, क्योंकि यह लोक वा शास्त्र का नियम है कि- प्रधान के तुल्य गुण-कर्म-स्वभाव वाला गौण भी हो जाता है। अर्थात् राजा धर्मात्मा हो तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा हो जायेगी। और अधर्मी होगा तो अधर्मी प्रजा हो जायेगी। इसके लिये सैकड़ों दृष्टान्त मिल सकते हैं कि खारे जल में जो अच्छे बिन्दु गिरते हैं वे भी खारे हो जाते हैं। बहुत से चोरों का साथी एक-दो अच्छा भी चोर बन जाता है। यदि वह अच्छा एक-दो मनुष्य सब चोरों को अच्छा बना ले तो वहां वह एक-दो ही प्रधान होगा और चोर गौण हो जायेंगे। तथा जैसे राजा जाता है, यहां साथ चलने वाले राजकर्मचारियों को प्रधान राजा के अन्तर्गत मान के अन्यों के गमन का प्रयोग नहीं किया जाता। इसी पक्ष को प्रधान मान के लोक में यह भी जनश्रुति (कहावत) प्रसिद्ध है कि “यथा राजा तथा प्रजा” इस सब कथन का आशय यह है कि जहां प्रजा के लोग वा राजकर्मचारी अधर्मी हों वा प्रजा की व्यवस्था ठीक न हो वा प्रजा के लोग राजा को कोशें वा बुरा समझें वहां अधिक दोष राजा का है। यदि राजा ठीक धर्मात्मा होगा और प्रजा के लोगों को पुत्र के तुल्य सुख देने को तत्पर रहेगा तो वहां की प्रजा भी कभी अधर्मी और राजा से विरुद्ध नहीं हो सकती, किन्तु प्रजा उस राजा को अपना पिता वा ईश्वर के तुल्य मानने को तत्पर रहेगी। और जो राजा प्रजा के सुख-दुःख की ओर पूरा ध्यान न देकर स्वार्थी, लोभी और लालची बनके सब समय वा दशाओं में जिस किसी प्रकार प्रजा से धन हरणे का उपाय सदा रखेगा, उसको प्रजा भी सदा दुष्ट समझेगी और दुःखी हो-हो के सदा कोशेगी। ऐसे राजा का राज्य बहुत काल तक नहीं चल सकेगा अर्थात् लाखों वर्ष तो दूर रहा किन्तु सहस्रों वर्ष भी चलना दुस्तर है। और धर्मात्मा राजा का यह भी बड़ा लक्षण है कि उसका राज्य बहुत काल तक दृढ़, स्थिर रहता है। और उस राज्य में प्रजा मोहित वा दुःखित नहीं होती। प्रयोजन यह है कि न्यायाधीश राजा यदि चित्त से किसी की ओर कुटिलता वा स्वार्थपरता से न देखेगा तो प्रजा अवश्य सुखी रहेगी। इसी कारण इस राजप्रकरण में कहा यह भी कथन सम्भव है कि- ‘कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये सब राजव्यवहार के नाम हैं, इस कारण राजा को ही विद्वान् लोग युग कहते हैं।’१ तात्पर्य यह है कि जब स्वार्थपरता और आलस्यादि व्यसनों से दूर रहकर राजा ठीक-ठीक धर्म की प्रवृत्ति करना चाहता है, तब बहुत शीघ्र धर्म का प्रचार हो सकता है कि जो प्रजा की चाहना से सहस्रों वर्ष में भी पूरा होना दुस्तर है। जिस दिन किसी कर्त्तव्य के लिये राजा की आज्ञा हो जाती है, उसको प्रजा के लोग निर्विवाद मानने लगते हैं। इसी के अनुसार धर्मकार्यों का प्रचार बहुत शीघ्र हो सकता है। तथा जैसे एक यह भी कहावत है कि- ‘वह वक्ता का ही दोष है कि जिसके कथन को श्रोता लोग न समझ पावें।’२ अर्थात् इससे भी प्रजा की उन्नति न होने में राजा का दोष है। और राजकर्मचारी भी जो कुछ बुराई करते हैं, उसमें भी प्रधान राजा का ही मुख्य दोष होगा, क्योंकि यह न्याय की बात है कि जिसको पाप लगता वही पुण्य भी भोगता है, जो पुण्य भोगता वह पाप का भी भागी होता है। अर्थात् जो कुछ प्रजा के साथ भलाई वा सुकर्म राजकर्मचारी करेंगे उससे जैसे राजा की प्रशंसा और राज्य की ओर से समझा जायेगा वैसे वे जो कुछ पाप वा बुराई करेंगे वह भी राजा की ओर से होगा। क्योंकि सब कर्मचारी वा न्यायसभा सहित का ही नाम राजा पड़ता है। जो राजा लोभी हो कि प्रजा के सुख-दुःख को न देखकर लोभरूप गड्ढे में ही गिरता रहता है वह ठीक-ठीक धर्मानुकूल राजशासन नहीं कर सकता क्योंकि- ‘लोभ ही पाप का सर्वोपरि कारण है’३ जो अधिक लोभी है उसके निकट जानो सब पापों का समूह है। क्योंकि अन्य सब पाप लोभ के ही बाल-बच्चे हैं। इससे सिद्ध है कि लोभी राजा महापापी है। सृष्टि के आरम्भ से बहुत काल अर्थात् लाखों, करोड़ों वर्ष तक धर्म को आगे कर चलने से ही आर्यराजाओं का राज्य बराबर चला आया। और द्वीपान्तरस्थ यवनादि का राज्य धर्मविरुद्ध चलने से नष्ट हो गया और आगे भी वैसे लोभमूलक राज्यों की अधिक स्थिति रहना असम्भव प्रतीत होती है।
जैसा दण्ड एक चोरादि को दिया जाता है उसको अन्य लोग देख वा सुनकर डर जावें और वैसा कर्म करने का साहस न करें अर्थात् ऐसा दण्ड देना चाहिये कि जैसे कोई बार-बार चोरी करे तो उसके हाथ काट लिये, उसकी वैसी दशा देखकर अन्य लोग चोरी करने से डरते हुए वैसा काम न करेंगे। जिस राज्य में चोरी आदि अधर्म की प्रवृत्ति आगे-आगे सदा कम-कम होती जाती है उसको धर्मानुकूल राज कह सकते हैं, और वही दृढ़ बहुकालस्थायी राज्य होता है। जैसे इसी राज- धर्मप्रकरण में दृष्टान्तरूप से यह लिखा है कि- ‘धान्य नाम अन्न की उत्पत्ति में आठवां, छठा वा बारहवां भाग लेवे’१ अर्थात् खेती की लागत मेहनत और उत्पत्ति को देखकर तीन में से कहीं-कहीं किसी-किसी भाग का ग्रहण राजा करे। इससे सिद्ध हुआ कि खेती में थोड़ा-बहुत जैसा अन्न उत्पन्न होगा वैसा ही न्यून वा अधिक उस खेती वाले से राजा को भाग मिलेगा। और जब किसान के घर में दैवयोग से अन्न उत्पन्न न हो वा होकर नष्ट हो जावे, तब राजा को कुछ नहीं लेना चाहिये, किन्तु उलटा अपने घर से राजा किसान को देवे। और जिस राज्य में खेती में कुछ न होने पर भी वैसा ही कर राजकर्मचारी प्रजा से बलपूर्वक ले लेते हैं, वही अधर्मजनक राज्य है ऐसा जानो। अभिप्राय यह है कि राजकर्मचारी भी राजा की इच्छा वा लोभादि को देखकर ही प्रजा पर निर्दयता से बर्ताव करते हैं, यह राजा का महा अधर्म है कि जो प्रजा को तिल के समान दबा-दबा के तत्त्व खींचा जावे।
राजा की कोई जाति नहीं अर्थात् पहले से भले ही वह ब्राह्मणादि किसी वर्ण-समुदाय में उत्पन्न हुआ हो परन्तु जब वह न्यायासन- राजगद्दी पर बैठता है, तब स्त्री-पुत्रादि भी उससे अलग हो जाते हैं और वह अपनी निज योग्यतानुसार सबसे भिन्न वा विलक्षण माना जाता है। राजा एक मनुष्य जातिमात्र में बड़ा अधिकार है कि जो सबको मान्य होता है। इसी कारण वह किसी नीच समुदाय में भी उत्पन्न हो तो भी न्यायासन पर सुशोभित होने पर वैसा ही मान्य वा पूज्य होता है कि जैसा ब्राह्मण, क्षत्रिय का राजा होने पर मानादि किया जावे। राजा जब राजगद्दी पर बैठता है तब जैसे दुष्ट कर्म करने वाले प्रजा के अन्य लोग दण्ड के योग्य होते हैं, वैसे ही राजा को अपने स्त्री-पुत्रादि के साथ भी व्यवहार करना चाहिये। वह राजा न्याय करते समय ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसी कारण राजा का नाम लोक में ईश्वर भी पड़ा है। क्योंकि ईश्वर का भी यही काम है कि वह जिस अपराधी को जैसा दण्ड देता है, उसको निर्विवाद भोगना पड़ता है, वैसे राजदण्ड भी निर्विवाद भोगना पड़ता है। कर्म से जो क्षत्रियपन माना जाता है वह भी राजकर्म ही है अर्थात् जो कोई राजकर्म में ठीक-ठीक धर्मानुकूल प्रवृत्त हो वह क्षत्रिय कहा जा सकता है। जब ब्राह्मणादि भी राजा वा राजकर्मचारी आदि बनके राज्य- सम्बन्धी काम का ठीक-ठीक सेवन करते हैं तब उनमें भी क्षत्रियत्व आ ही जाता है। अथवा यों कहिये कि पहले से उन ब्राह्मणादि में क्षत्रियत्व प्राकृतिक गुणों के अनुसार होता ही है, जिससे उनकी वैसे राज्यसम्बन्धी कर्म करने में उत्साह वा प्रवृत्ति हो जाती है। इसी कारण राजा का सबसे पृथक् होना वा ईश्वर होना दिखाने के लिये आठवें अध्याय में कहा है कि- ‘पिता, गुरु, मित्र, माता, स्त्री, पुत्र वा पुरोहित कोई क्यों न हो, जो अपराध करे उसको बराबर यथायोग्य दण्ड देवे।’१ चारों वर्ण पृथक्-पृथक् चार समुदाय हैं, सामान्य कर उन सबका शासक और अपने-अपने धर्म पर चलाने वाला सबमें समदृष्टि ईश्वर के तुल्य निष्पक्ष एक राजा है। यद्यपि राजधर्म क्षत्रिय का प्रधान वा मुख्य धर्म है, तो भी वह क्षत्रिय- धर्म का पक्षपाती नहीं होता इसी से उसकी कोई जाति नहीं है। और इसी कारण यह भी कहा है कि- ‘इस सब जगत् की रक्षा के लिये परमेश्वर ने राजा को बनाया और ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार ही वह ऐसे अधिकार को प्राप्त होता है। मनुष्यरूप से बैठे राजा को देवता वा ईश्वररूप से देखना चाहिये।’२ अर्थात् प्रजास्थ मनुष्य उसको अपने तुल्य साधारण मनुष्य न समझें क्योंकि उसको परमेश्वर ने उस काम पर बैठाला है। इसी से जो चाहे वह राजा नहीं बन सकता किन्तु जिसको परमेश्वर बनाता है वही राजा बन सकता है इससे सिद्ध हुआ कि जो सबका समदृष्टि से पालन करता है, वही राजा धर्मात्मा हो सकता है।
जिस राज्य में व्यभिचार का लेश भी नहीं, वह धर्मानुकूल राज्य है। यदि कोई कदापि भूलकर व्यभिचार करे, तो धर्मशास्त्र (कानून) में लिखे अनुसार बड़ा दण्ड देवे। सो इसी राजप्रकरण में कहा है कि- ‘परस्त्री के साथ व्यभिचार करने में प्रवृत्त मनुष्यों को लिग् काट लेने आदि भयटर दण्ड देके वा नाक कटवा लेना आदि दण्ड देकर राज्य से बाहर निकलवा देवे। क्योंकि व्यभिचार से ही जगत् में वर्णसटर दोष बढ़ता है, जिससे सुख की जड़ों को निर्मूल करने वाला अधर्म बड़े बल से उठा हुआ सबका नाश करने वाला हो जाता है।’१ तात्पर्य यह है कि जैसे व्यभिचार करने वाले स्त्री-पुरुषों का चित्त चलायमान भयभीत शान्त्यादि शुभगुणों से रहित बुराई में लिप्त होता है वैसे ही व्यभिचार के सन्तान भी अधर्म की मूर्त्ति होते हैं। यह कदापि सम्भव नहीं कि यदि धर्मानुकूल परस्पर अति प्रसन्नतापूर्वक स्त्री-पुरुषों की ओर से गर्भाधान हो तो वह पुत्र पिता-माता से कभी विरोध करे वा उनकी सेवा प्रीति से न करे। जिस देश में अधिक फूट वा विरोध बढ़ता है उसका बड़ा कारण व्यभिचार ही है। इससे जो अपने राज्य को दृढ़ करना चाहे वह व्यभिचार को जड़ से खोदकर उड़ा देवे। जब व्यभिचार वा वेश्यागमन सर्वथा नष्ट होगा तभी स्त्री-पुरुषों में भी ठीक-ठीक प्रीति बढ़ेगी और प्रीति का फल अच्छे धर्मात्मा पुत्र होना वा संसार में सुख बढ़ना है। ‘जो स्त्री पति का तिरस्कार कर व्यभिचार करना चाहे उसको बहुत मनुष्यों के समुदाय में कुत्तों से काट-काट के खिला देवे जिससे वैसा काम अन्य कोई फिर न करे। और जारपुरुष को लोहे की अत्यन्त तपायी अग्निवर्ण खट्वा पर बहुत मनुष्यों के समुदाय में लिटा देवे जिससे व्यभिचार का नाश हो जावे।’२ इत्यादि कथन से प्रतीत होता है कि पूर्व समय में इस आर्यावर्त्त देश में व्यभिचार नहीं था। और अब व्यभिचार पर विशेष दण्ड ही नहीं है। इसी से प्रतिदिन उसकी वृद्धि दीखती है। जिस राज्य में व्यभिचार का विशेष विचार नहीं होता उसको धर्मानुकूल राज्य नहीं कह सकते। इस पर कोई यह शटा कर सकता है कि छोटे अपराध में वैसा बड़ा दण्ड देना क्या न्याय होगा? इसका उत्तर यह है कि वह वास्तव में न्याय है क्योंकि राजा का क्रोध उस मनुष्य पर नहीं किन्तु उस पापकर्म पर होना चाहिये। ऐसे दण्ड राजा को एक वर्ष में एक-दो ही कर देने से प्रजा भर में उस पाप की निवृत्ति हो जायेगी। वैसे पाप का नाम सुनके लोग कम्पायमान रहा करेंगे। पाप की ओर मुख भी नहीं उठेगा। और जो सहज दण्ड दिये जावें तो हजारों को दण्ड देने पड़ें, इससे न्याय वही है जिससे पाप का नाश और सदा धर्म की वृद्धि होती रहे।
कन्या वरों का ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य और विद्या शिक्षायुक्त होने पर युवावस्था में विवाह होना तथा उनकी ठीक-ठीक विधि वा तुल्यता मिल जाना यह सब राजा के नियमानुसार ही हो तभी प्रजा की ठीक-ठीक उन्नति हो सकती है। यदि राजा की आज्ञा हो जावे कि सब ब्राह्मणादि के बालक इतनी अवस्था तक पढ़ाये जावें तब तक किसी पुत्र वा कन्या का विवाह हो तो अमुक दण्ड मिले। तो राजनियम को तोड़कर थोड़ी अवस्था में कोई भी विवाह न करे, फिर नित्य की झींका-झींकी आप ही मिट जावे।
इस राजप्रकरण में कोई-कोई विवाद और उनका निर्णय (फैसला) ऐसे लिखे गये हैं जो पहले देश-काल भेद से इस देश में थे, उनका उपयोग इस समय नहीं है तो भी व्यर्थ न समझने चाहियें, क्योंकि जो कभी था वैसा फिर भी आगे हो सकता है। और अनेक विवाद वा निर्णय जो पहले नहीं थे इसी से राजधर्म में नहीं लिखे गये, उनके लिये राजा को चाहिये कि विद्वानों से नवीन नियम करा लेवे। तथा कहीं ब्राह्मणादि श्रेष्ठ पुरुषों को ज्ञानी होने से अधिक दण्ड देना उचित है और कहीं हानि-लाभ देखकर साधारण की अपेक्षा बड़े को थोड़ा दण्ड देना वा क्षमा कर देना। ये दोनों बातें समयानुसार कर्त्तव्य हैं, इसी से कहीं-कहीं भेद दीखता है। इसको विरोध नहीं समझना चाहिये।