पुस्तक – समीक्षा
पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?
लेखक– माधव के देशपांडे
प्रकाशक– आर्य प्रकाशन, पिंपरी, पुणे-411018
मूल्य– 60/- पृष्ठ संया– 93
सत्यार्थप्रकाश एक चर्चित ग्रन्थ है, जितना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व स्वामी दयानन्द का है, उतने ही क्रान्तिकारी विचार उनके लिखे ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में है। यह ग्रन्थ जब प्रकाशित हुआ था, तब जितना चर्चित था, आज भी चर्चा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है। यह ग्रन्थ वैदिक सिद्धान्त मानने वाले के लिये बौद्धिकता की पराकाष्ठा प्रदान करता है, वहाँ विरोधी विचार वाले को बुद्धि का उपयोग करने के लिये बाध्य करता है।
भारत में हिन्दू धर्म में प्रचलित जितने मत-सप्रदाय हैं, उन सब में जितनी मान्यतायें, रूढि, अन्धविश्वास और पाखण्ड पर आधारित हैं, उन सबका तार्किक विश्लेषण इस ग्रन्थ में उपलध है। जो विदेशी स्वयं पाखण्ड में फँसे हुये थे, परन्तु हिन्दुओं की मूर्खता पर हँसने में बड़प्पन समझते थे, उन विदेशी मतों में मुखय रूप से ईसाइयत और इस्लाम की मिथ्या धारणाओं का भी तार्किक खण्डन इस ग्रन्थ के 13 वें और 14 वें समुल्लास में किया गया। ग्रन्थ की इस विवेचना के कारण ही क्रान्तिवीर सावरकर ने लिखा था- ‘‘सत्यार्थ प्रकाश के रहते कोई विदेशी अपने मत की डींगें नहीं हाँक सकता।’’
इस ग्रन्थ में तार्किक और न्याय संगत विचार होने के कारण जितने भी बुद्धिजीवी समाज में हुये, सबने मुक्तकण्ठ से इस ग्रन्थ की प्रशंसा की है। आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के सपर्क में जो विद्वान् नेता, राजा-महाराजा आये, उन्होंने इस ग्रन्थ को पढ़ने की प्रेरणा सबको की।
दक्षिण में छत्रपति शाहू महाराज ने अपने विद्यालयों में सत्यार्थप्रकाश पढ़ाने की अनिवार्यता की थी। जोधपुर, उदयपुर राज्यों में भी ऋषि ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था अनेक स्थानों पर की गई। शाहपुराधीश नाहरसिंह वर्मा का शाहपुरा राज्य आर्य राज्य कहलाता था। यहाँ विद्यालयों में प्रतिदिन हवन होता था तथा विद्यालयों में ऋषि कृत ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था की गई थी।
इस ग्रन्थ की भाषा तार्किक होने के साथ दृढ़ता प्रदर्शित करती है, जिसके कारण जिन मत-मतान्तरों का इसमें खण्डन किया गयाहै, उनमें से कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की तो कुछ लोगों ने न्यायालय की शरण ली, परन्तु इस ग्रन्थ के पक्षपात रहित न्याय संगत तार्किक विचारों का सर्वत्र आदर किया गया। इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद मनुष्य की विचार करने की शक्ति जागृत हो जाती है। वह कुछ भी करने से पहले क्या, क्यों, कैसे, जैसे प्रश्नों पर उन विचारों को परखता है तभी अनुकूल होने पर स्वीकृति की ओर बढ़ता है।
ऋषि दयानन्द की ऐसी विशेषता है कि जो किसी प्रचलित गुरुओं के धर्मग्रन्थ हैं, उनमें दिखाई नहीं देती, कोई गुरु अपने शिष्य को उसकी परीक्षा करने का अधिकार नहीं देता, परन्तु ऋषि दयानन्द कहते हैं- मनुष्य को गुरु बनाने से पहले गुरु की ओर से पढ़े जाने वाले शास्त्र की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए। गुरु का तो, शिष्य की परीक्षा का अधिकार था, परन्तु शिष्य को गुरु की परीक्षा करने का अधिकार ऋषि दयानन्द ही देते हैं। वे सत्यार्थ प्रकाश में परीक्षा के पाँच प्रकार भी बताते हैं। इसी कारण जहाँ अन्य गुरु अपने शिष्य को ज्ञान और विवेक का अधिकार नहीं देते, वहीं ऋषि दयानन्द शिष्य को ज्ञानवान् और विवेकी बनने की प्रेरणा करते हैं।
इस प्रकार जीवन के सभी क्षेत्र और सभी अवसर सत्यार्थप्रकाश के विचार क्षेत्र में आते हैं। मनुष्य के बाल्य से लेकर मृत्यु तक की अवधि हो या विविध ज्ञान-विज्ञान को समझने के अवसर हों, इसी कारण सत्यार्थप्रकाश के 7, 8, 9 वें समुल्लास में सपूर्ण दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया गया है।
ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को मराठी भाषा में प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास श्री माधव देशपाण्डे ने किया है। श्री देशपाण्डे ने स्वयं और अपनी धर्मपत्नी और अपने बच्चों को इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रबुद्ध बनाया है और अब वे समाज के युवाओं को भी इस उत्कृष्ट विचार से जोड़ना चाहते हैं। मैं इनके इस उत्तम प्रयास की प्रशंसा करता हूँ और ग्रन्थ के लोकप्रिय होने की कामना करता हूँ।
-डॉ. धर्मवीर