पुरी में रहने वाले ‘पुरुष’ दो हैं

पुरी में रहने वाले  ‘पुरुष’ दो हैं

– इन्द्रजित् देव

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने क्रान्तिकारी ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं कि ईश्वर के अनेक नाम हैं। ये नाम गुणवाचक, सबन्धवाचक, कर्मवाचक हैं। इनके अतिरिक्त एक नाम मुखय व निज (= ओ3म्) है। इसी समुल्लास में एक नाम ‘पुरुष’ भी है। इस नाम के आधार पर एक पौराणिक विद्वान् प. गिरिधर शर्मा ने एक शास्त्रार्थ में तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा, पञ्जाब के प्रधान महात्मा मुंशीराम (=स्वामी श्रद्धानन्द जी) से एक शास्त्रार्थ में प्रश्न किया था-   ‘‘स्वामी दयानन्द ने ईश्वर को पुरुष घोषित किया है। यह प्रमाण वेद में नहीं है तो स्वामी जी ने क्यों ऐसा घोषित किया?’’ इस प्रश्न के उत्तर में महात्मा मुंशीराम जी ने कहा कि वेद में ईश्वर को पुरुष कहा गया है-

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्

तमेवविदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

– यजुर्वेद 31-18

अर्थात् मैं ऐसे महानतम् पुरुष को जानता हूँ जो आदित्य-सूर्य के समान तेजस्वी, अन्धकार से परे है। वे ब्रह्माण्ड रूपी नगरी में निवास करने वाले प्रभु पुरुष हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वाधिक महान् हैं ,विभू हैं अथवा ‘मह पूजायाम्’ पूजा के योग्य हैं। उस ज्योतिर्मय प्रभु को जानकार ही मनुष्य मृत्यु को लाँघ जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अन्य कोई उपाय या मार्ग नहीं है।

वेद से कुछ अन्य मन्त्रों में भी ईश्वर को पुरुष कहा गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिंविश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशाङ्गुलम्।

– ऋ. 10-90-1

भावार्थःवे पुरुष विशेष प्रभु ‘अनन्त सिरों, आँखों व पाँव’ वाले हैं। सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके इसको लाँघ कर रह रहे हैं।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यज्ज भव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिहति।

– ऋ. 10-90-2

भावार्थःब्रह्माण्ड नगर में निवास व शयन करने वाले प्रभु सब प्राणियों पर शासन करने वाले हैं। इनके जो कर्मानुसार जन्म को ग्रहण कर चुके हैं तथा जो समीप भविष्य में ही जन्म ग्रहण करेंगे, इन प्राणियों के भी वे प्रभु ईश हैं।

एतावानस्य  महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

– ऋ. 10-90-3

भावार्थःसमस्त ब्रह्माण्ड पुरुष विशेष प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड से बहुत बड़े हैं। यह ब्रह्माण्ड तो प्रभु के एक देश में ही है।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्युपुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।

– यजुर्वेद 31/4

भावार्थःयह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्य जगत् से पृथक् तीन अंश से प्रकाशित हुआ।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षण पुरुषं जातमग्रतः

– यजुर्वेद 31/9

भावार्थःहम अपने हृदयों को पवित्र बना वहाँ प्रभु की ज्योति को जगाएँ।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

– य. 31/3

भावार्थःसारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एक देश में है।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।

– य. 31/5

भावार्थःयह संसार प्रभु द्वारा प्रारमभ में एक विराट् पिण्ड के रूप में उत्पन्न किया जाता है।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

– ऋ. 1-90-2

भावार्थःयह जो कुछ भूत, वर्तमान और भविष्य है, यह सब उपलबध जगत् इस जगत् के आधार सनातन भगवान् में ही है।

वेदों में अन्य प्रमाण भी उपलबध हैं, परन्तु विस्तार भय से वेद-प्रमाण और न देकर दर्शनों के कुछ प्रमाण उद्धृत हैं-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः।

– योगदर्शनम् 1/24

अर्थः- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश- इन पाँच क्लेशों, शुभाशुभ कर्मों, कर्मफल तथा वासनाओं से असमबद्ध पुरुष विशेष ईश्वर कहलाता है।

आत्मा का भी यत्र-तत्र पुरुष अर्थ में प्रयोग किया गया हैं-

उद्यानं ते पुरुष नावयानम्। – वेद

अर्थः हे जीव! तुम ऊर्ध्वगतिवाला हो। तेरा नाम ‘पुरुष’ है। तेरी सार्थकता पुरुषार्थ करने में है।

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः।

– सांखयदर्शन 1/1

अर्थःआध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक- इन तीन प्रकार के दुःखों से अतिशय निवृत्ति परम पुरुषार्थ (=पुरुष का प्रयोजन) है। इसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्र का प्रारमभ करते हैं।

न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादि दोषात्।

– सांखयदर्शन 5/74

अर्थःआत्मा और अनात्मा सबका उच्छेद (= नाश) भी मोक्ष नहीं है, अपुरुषार्थता होने आदि दोष से।

पुरुषबहुत्वं व्यवस्थातः।     – सांखयदर्शन 6/45

अर्थःपुरुष (= आत्माएँ) बहुत हैं, व्यवस्था के कारण ।

न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्।

– सांखयदर्शन 5/46

अर्थःशबद राशि वेद भी पौरुषेय नहीं है (=किसी पुरुष अर्थात् आत्मा द्वारा रचे नहीं गए) उसकी रचना करने वाले पुरुष के न होने से।

ना पौरुषेयत्वान्नित्यत्वमङ्कुरादिवत्।

– सांखयदर्शन 5/48

अर्थःकिसी पुरुष (= आत्मा) द्वारा न लिखे होने से वेदों का नित्य होना नहीं कहा जा सकता, अङ्कुरादि के समान।

यस्मिन्नदृष्टेऽपिकृतबुद्धिरुपजायते तत् पौरुषेयम्।

– सांखयदर्शन 5/50

अर्थःजिस वस्तु में कर्त्ता के द्वारा अदृष्ट होने पर भी यह रची गई है, ऐसी बुद्धि होती है, वह वस्तु पौरुषेय (= आत्मा द्वारा रची गई) कही जाती है।

सत्व पुरुषयोः शुद्धिसामये कैवल्यम्।

– योगदर्शनम् 3/54

अर्थःसत्व और पुरुष (= आत्मा, जीव) की शुद्धि समान होने पर कैवल्य (= मोक्ष) हो जाता है।

ब्राह्मणः पुरं वेदेति पुरष उच्यते।

-अर्थववेद 10/2/30

अथर्व. की दृष्टि से ‘‘पुरं वेत्तीति पुरुषः’ ’ऐसा पुरुष निर्वचन है। श्रुति की दृष्टि से यह निर्वचन जीव (= आत्मा) का ही प्रतीत होता है, क्योंकि ब्रह्मपुर का ज्ञान वही करेगा। जहाँ ब्रह्म ओत-प्रोत है, वह सब ही ब्रह्म का पुर हुआ तथा वह है सर्व जगत्, उसे समपूर्णतः प्रभु ही जानते हैं, इस दृष्टि से वे भी पुरुष कहे जा सकते हैं।

आत्मा को ‘पुरुष’ क्यों कहते हैं? वह पूः अर्थात शरीर में रहता है, अतः पुरिषादः कहाता हुआ पुरुष कहा जाने लगा अथवा उसमें सोता है, वह पुरिशय होता हुआ ‘पुरुष’ हो गया- पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः।

पूरयति अन्तः अन्तर पुरुषम् अभिप्रेत्य- अर्थात् अन्दर से समपूर्ण जगत् को भरपूर कर रहा है, अन्तर्यामी होने से सर्वत्र व्याप्त है, ऐसा विग्रह परमेश्वर को लक्ष्य करके ही किया जाता है।

इससे सिद्ध होता है कि ‘पुरुष’ शबद का अर्थ प्रसंग व परिस्थिवशात् आत्मा तथा परमात्मा – इन दोनों में से कोई भी अर्थग्रहण किया जाना चाहिए।

आत्मा रूपी ‘पुरुष’ और परमात्मा रूपी ‘पुरुष’ में अन्तर भी समझना अपेक्षित है। इस विषय में निवेदन यह है परमात्मा विशेष महान्तम् पुरुष है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 31/18 में तथा योगदर्शन के सूत्र 1/24 में इस लेख में उद्धृत किया जा चुका है, जबकि आत्मा सामान्य है। परमात्मा व आत्मा काल की दृष्टि से अनन्त हैं, परन्तु व्यापकता की दृष्टि से परमात्मा सर्वत्रव्यापक है और आत्मा की व्यापकता सीमित है। आत्मा सत्वचित् है तो परमात्मा सत्, चित्त था आनन्द स्वरूप है। आत्मा सर्वशक्तिमान् नहीं है, अर्थात् उसे करणीय कार्य करने के लिए दूसरे व्यक्तियों तथा परमात्मा से सहायता लेनी पड़ती है, जबकि परमात्मा अपने कार्य करने के लिए किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं समझता। परमात्मा अनुपम है, परन्तु आत्मा अनुपम नहीं है। परमात्मा सृष्टिकर्त्ता है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं है।

ईश्वर अभय है तो जीव अधिकतर भयशील ही रहता है। परमात्मा सर्वान्तर्यामी है, परन्तु आत्मा अन्तर्यामी हो नहीं सकता। परमात्मा सर्वज्ञ है, परन्तु आत्मा अल्पज्ञ है। आत्मा शरीर को प्राप्त करता है, परन्तु परमात्मा ने कभी शरीर धारण नहीं किया तथा न ही ऐसा करेगा। परमात्मा अकाम है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं हो सकता। कुछ अन्य भी परस्पर भेद हैं।

– चूनाभट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

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