पूज्य उपाध्यायजी की महानता
1956 ई0 की वर्षाऋतु की बात है। मैं दिल्ली गया। पूज्य पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी किसी सामाजिक कार्य के लिए दिल्ली आये। श्री सन्तलालजी विद्यार्थी सज़्पादक ‘रिफार्मर’ की
प्रार्थना पर उपाध्यायजी ने ‘पयामे हयात’ नाम से एक उर्दू पुस्तक लिखी। पुस्तक की पाण्डुलिपी दिवंगत श्री विद्यार्थी जी को दे दी।
श्री विद्यार्थीजी ने उपाध्यायजी को बताया कि आपका शिष्य (राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’) भी यहीं आया हुआ है। उपाध्यायजी ने उन्हें कहा- ‘‘यह पाण्डुलिपि उसे दिखा दो और कहो कि इसमें कोई त्रुटि
हो तो सुधार कर दे। जो घटाना बढ़ाना हो कर ले।’’
श्री विद्यार्थीजी ने यह सन्देश मुझे दिया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि श्री उपाध्यायजी ने मुझे कोई ऐसी आज्ञा दी होगी। मैंने विद्यार्थीजी से कहा भी कि आप तो उपहास के लिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने बहुत कहा पर मुझे विश्वास न आया।
मैं पूज्य उपाध्यायजी के दर्शनार्थ दयानन्द वाटिका (अब दयानन्द वाटिका नहीं) गया। पूज्यपाद उपाध्यायजी ने मिलते ही कहा कि विद्यार्थी जी मिले ज़्या? पाण्डुलिपि ले आये? उस पुस्तक को
देखो, कोई त्रुटि हो तो ठीक कर दो। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने एक फ़ारसी लोकोक्ति कही जिसका भाव है कि ‘‘कब आये और कब गुरु बन बैठे।’’ मेरा अभिप्राय स्पष्ट ही था और है।
श्रद्धेय उपाध्यायजी इस युग के एक महान् मनीषी, दार्शनिक, लेखक व नेता थे और मैं अब भी एक साधारण लेखक हूँ। तब तो और भी छोटा व्यक्ति था। मैंने कहा भी कि मुझे ज़्या आता है जो आपकी पुस्तक में दोष निकालूँ?
मैं तो कहता ही रहा परन्तु महापुरुष की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुस्तक ‘पयामे हयात’ की पाण्डुलिपि देखी। कुछ सुझाव भी दिये जो लेखक ने स्वीकार किये, परन्तु न जाने पुस्तक कहाँ छुप गई जो अब तक नहीं छपी। 24 दिसज़्बर 1959 ई0 के दिन मथुरा में पूज्य उपाध्यायजी ने कहा-‘‘मैं पुस्तक उनसे वापस लूँगा फिर वे भूल गये। इस संस्मरण को यहाँ देने का प्रयोजन यही है कि पाठक अनुभव करें कि ऋषि दयानन्द का वह महान् शिष्य कितने उच्चभावों से विभूषित था। अहंकार तो उनमें था ही नहीं। विद्या का मद न था। छोटे-छोटे लोगों को आगे लाने का यही तो ढंग है। मथुरा में भी इस पुस्तक के बारे एक विशेष बात कही जो गंगा-ज्ञान सागर
चौथे भाग में दी गई है।