पण्डित ताराचरण से शास्त्रार्थ
महर्षि का पण्डित ताराचरण से जो शास्त्रार्थ हुआ था, उसकी चर्चा प्रायः सब जीवन-चरित्रों में थोड़ी-बहुत मिलती है। श्रीयुत दज़जी भी इसके एक प्रत्यक्षदर्शी थे, अतः यहाँ हम उनके इस
शास्त्रार्थ विषयक विचार पाठकों के लाभ के लिए देते हैं। इस शास्त्रार्थ का महज़्व इस दृष्टि से विशेष है कि पण्डित श्री ताराचरणजी काशी के महाराज श्री ईश्वरीनारायणसिंह के विशेष राजपण्डित थे।
पण्डितजी ने भी काशी के 1869 के शास्त्रार्थ में भाग लिया था। विषय इस शास्त्रार्थ का भी वही था अर्थात् ‘प्रतिमा-पूजन’।
पण्डित ताराचरण अकेले ही तो नहीं थे। साथ भाटपाड़ा (भट्ट पल्ली) की पण्डित मण्डली भी थी। महर्षि यहाँ भी अकेले ही थे, जैसे काशी में थे। श्रीदज़ लिखते हैं, ‘‘शास्त्रार्थ बराबर का न
था, कारण ताराचरण तर्करत्न में न तो ऋषि दयानन्द-जैसी योग्यता तथा विद्वज़ा थी और न ही महर्षि दयानन्द-जैसा वाणी का बल था। इस शास्त्रार्थ में बाबू भूदेवजी, बाबू श्री अक्षयचन्द
सरकार तथा पादरी लालबिहारी दे सरीखे प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित थे।’’
ऋषि को सब प्रमाण कण्ठाग्र थे श्रीयुत दज़जी लिखते हैं कि महर्षि वेद, शास्त्र, स्मृतियों, रामायण व महाभारत आदि के सब प्रमाण बिना पुस्तक देखे ही बता दिया करते थे। उन्हें पुस्तक देखने की आवश्यकता ही न थी।
अपनी स्मरणशक्ति के भरोसे सब मन्त्र तथा श्लोक उद्धृत कर देते थे। किसी में सामने आने का साहस न था श्री मोहनी मोहनदज़ लिखते हैं कि जिनको अपने शास्त्रज्ञान का अथवा संस्कृतज्ञ होने का अभिमान था, उनमें से कोई भी उनसे शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं कर पाता था। उनके सामने आने से सब डरते थे। सज्जन लोग उनके दर्शन को आते रहते थे। उनके दरबार में भीड़ लगी रहती थी।