पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा
यह घटना भी सन् 1960 ई0 के आसपास की है। पण्डित श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु को काशी के निकट बड़ागाँव में विवाह-संस्कार करवाने जाना पड़ा। उन दिनों आप कुछ अस्वस्थ रहते थे। आनेजाने में कठिनाई होती थी, अतः आप आन्ध्र प्रदेश के अपने एक ब्रह्मचारी धर्मानन्द को साथ ले-गये।
आप विवाह-संस्कार प्रातःकाल अथवा मध्याह्नोज़र ही करवाया करते थे, परन्तु उस दिन विवाह-संस्कार रात्रि एक बजे करवाना पड़ा। कुछ वर्षा भी हो गई और साथ ही बड़ी भयङ्कर आँधी भी आ गई। बारात गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरी। पूज्य जिज्ञासुजी को बड़ा कष्ट हुआ। शिष्य ने लौटते हुए कहा-‘‘गुरुजी आज तो आपको बड़ा कष्ट हुआ?’’
पूज्य ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा-‘‘बड़े-बड़ों के यहाँ तो सब लोग संस्कार करवाने पहुँच जाते हैं, साधारण लोगों के घर संस्कार करवाने कोई नहीं पहुँचता। यदि कोई बड़ा व्यक्ति इस समय मुझे संस्कार करवाने के लिए कहता तो इस समय मैं कदापि न आता, परन्तु यह व्यक्ति कचहरी में साधारण कर्मचारी है, आर्यपुरुष है। मेरे पास श्रद्धा से आया था, इसलिए विवाह करवाने
की स्वीकृति दे दी।’’ महापुरुषों के जीवन की यही विशेषता होती है। आर्यत्व का यही लक्षण है।1
जो तड़प उठे जन पीड़ा से, वह सच्चा मुनि मनस्वी है। जो राख रमाकर आग तपे, वह भी ज़्या ख़ाक तपस्वी है!!
(राजेन्द्र जिज्ञासु)
जिन धर्मवीरों ने गाँव-गाँव में जनसाधारण तक ऋषि का सन्देश सुनाया, वे सब ऐसी ही लगन रखते थे।