पण्डित लेखरामजी का भाई चल बसा, परन्तु
धर्म की दुहाई देना और बात है, तप-त्याग की चर्चा करना और बात है, परन्तु धर्म-रक्षा के लिए कुछ कर दिखाना दूसरी बात है।
1894 ई0 में सरदार अर्जुनसिंहजी आर्यसमाज दीनानगर के मन्त्री थे। एक मुसलमान मौलवी चिराग़दीन ने शास्त्रार्थ की चुनौती दे रज़्खी थी। अर्जुनसिंहजी ने पण्डित लेखरामजी को बुलाया।
पण्डितजी तुरन्त शास्त्रार्थ के लिए पहुँच गये। चिराग़दीन को सामने आने का साहस ही न हुआ। बाहर से एक अकबर अली नाम के मौलवी को बुलवाया गया। पण्डित लेखरामजी की अमृत भरी
वाणी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे हिन्दू जो अब तक आर्यसमाज का घोर विरोध करते थे, अड़ गये कि पण्डित लेखरामजी को जाने नहीं देंगे। पण्डितजी को दो दिन और दीनानगर में रुकना पड़ा।
उनकी ज्ञान-प्रसूता वाणी को सुनकर सारा नगर अपने-आपको धन्यधन्य मान रहा था। स्मरण रहे कि जब पण्डितजी दीनानगर पधारे थे तभी उनके भाई की मृत्यु हुई थी। पण्डितजी घर पर न जाकर धर्म-रक्षा के लिए दीनानगर आ गये। दीनानगर से उन्हें अमृतसर जाना पड़ा।
वहाँ से मुरादाबाद एक सारस्वत ब्राह्मण युवक श्रीराम की शुद्धि के लिए चले गये। यह लड़का लोभवश ईसाई बन गया था। पण्डित श्री लेखराम के हृदय में धर्म-प्रेम व जातिसेवा के लिए
जो अग्नि धधकती थी, यह घटना उसका एक प्रमाण है। हम लोग इतना कुछ न भी कर सकें, परन्तु कुछ तो करके दिखाएँ।