अब संक्षेप से प्रायश्चित्तविषय का विवेचन किया जाता है। प्रायश्चित्त यह शब्द कर्मविशेष का नाम है कि दुष्ट कर्मों के सेवन से उत्पन्न हुई व्याकुलता वा विषमता की निवृत्ति के लिये वेदवेत्ता विद्वानों की आज्ञा से मनुष्य जिसका सेवन करते हैं वह प्रायश्चित्त कर्म कहाता है। प्राय शब्द से परे चित्त या चित्ति शब्द को वार्त्तिक१ से सुट् का आगम होकर यह प्रायश्चित्त शब्द बनता है। सो इसका ऐसा ही विद्वानों ने लाक्षणिक अर्थ भी माना है कि- ‘प्रायः नाम तप और चित्त नाम निश्चय करके युक्त कर्म का नाम प्रायश्चित्त है। चित्त को सम करने के लिये अर्थात् चित्त की विषमता मेटने के लिये जो दिया वा बताया जाता और जिसका सेवन विशेष आन्दोलन के साथ विद्वानों की सभा कराती है वह कर्म प्रायश्चित्त कहाता है।२ इन श्लोकों में सभा के द्वारा कराने की आज्ञा दिखाने से ज्ञात होता है कि राज्यसभा के तुल्य वेदवेत्ता विद्वानों की सभा ने देश-कालादि का विचार करके करने को कहा कर्म प्रायश्चित्त कहाता है। अर्थात् राजदण्ड के तुल्य प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है। इसी कारण यदि न्यायपूर्वक अपराधानुकूल ही दुष्ट कर्म का फल राजदण्ड भोग लिया हो तो पीछे इस जन्म वा जन्मान्तर में दुष्ट कर्म का बुरा फल नहीं मिलेगा। किन्तु वह अपराधी उस पाप से फिर छूट जाता है। वैसे ही यथार्थ रीति से प्रायश्चित्त कर लेने पर वह अपराधी उस पाप से छूट जाता है जो चोर, डाकू आदि पापकर्म करके उसका दुःख फल भोगना नहीं चाहते उनको राजा बलपूर्वक दण्डादि द्वारा वश में रखकर निर्बल धर्मात्माओं की रक्षा करे। और जो धर्मात्मा हैं वे किसी प्रकार अज्ञान वा दुःसग् में पड़ के भ्रम से पाप कर लेवें अर्थात् उनसे बुरा काम बन पड़े तो पीछे उसकी बुराई को सोचने से यदि मन ग्लानि को प्राप्त हो तो विद्वानों की सम्मति से उनको स्वयमेव दण्डभोगरूप प्रायश्चित्त का सेवन कर लेना चाहिये वा यों कहिये कि धर्मात्मा लोग बुरा काम बन जाने से स्वयमेव उसका दुःख फल भोगकर शुद्ध होना पसन्द करते हैं। यही प्रायश्चित्त और राजदण्ड में भेद है।
प्रायश्चित्त किस दशा में वा किसको करना चाहिये सो दिखाते हैं कि- ‘वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों के जो सन्ध्यादि कर्म विहित हैं उनको न करने वाला तथा निन्दित वा जिनके लिये वेदादि में निषेध किया है कि ऐसा काम न करना वैसे पापकर्म का आचरण करने वाला और इन्द्रियों के भोगविषय में लम्पट वा आसक्त, ये तीन प्रकार के मनुष्य ही विशेषकर प्रायश्चित्त करने योग्य होते हैं।’१ इस प्रायश्चित्त के दो भेद हैं- ‘एक तो बिना इच्छा किये स्वभाव से वा अज्ञान से दुष्ट कर्म का सेवन किया जाता अथवा कर्त्तव्य का त्याग किया जाता है, वहां द्वितीय ज्ञानपूर्वक किये की अपेक्षा प्रायश्चित्त थोड़ा किया जाता है। और जो इच्छापूर्वक वा जानकर बुरा काम किया जाता है उसमें पूर्व की अपेक्षा शास्त्रकारों ने अधिक प्रायश्चित्त कहा है।’२ तात्पर्य यह है कि ज्ञानपूर्वक किया कर्म जितना संस्कार को बिगाड़ने वाला होता है वैसा अज्ञान से किया कर्म नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञान से किये काम का हृदयादि के साथ वैसा पूरा प्रवेश नहीं होता जैसा कि ज्ञान से किये का होता है। इसी कारण इन दोनों प्रकार के कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त कहा है, सो ठीक ही मन्तव्य है।
इस मानव धर्मशास्त्र के इसी ग्यारहवें अध्याय में एक-एक ब्रह्महत्यादि महापातक वा उपपातक के अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिखाये हैं। उसमें अधिकारियों का भेद, देश का भेद और काल का भेद भी कारण हैं। सब अवस्थाओं, सब काल वा सब देश में सब लोग एक प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं कर सकते। जवान, बलवान् और स्वस्थ मनुष्य जैसा दुःख सह सकता है वैसा वृद्ध, निर्बल और रोगी वा बालक नहीं सह सकता। इस कारण इनके प्रायश्चित्त वा दण्ड में भेद होना चाहिये। लक्षाधीश मनुष्य पर एक सहस्र मुद्रा का दण्ड जितना उसको दुःखदायी होगा उतना ही सहस्रपति को दस मुद्रा के दण्ड से क्लेश हो जायेगा और सर्वथा निर्धन दरिद्री मनुष्य को एक मुद्रा का दण्ड भी लक्षाधीश की अपेक्षा विशेष दुःखदायी होगा। इसी प्रकार लोक में अनेक प्रकार के अधिकारी हैं, उनकी योग्यता देखकर जैसे राजदण्डादि की न्यूनाधिक व्यवस्था करनी चाहिये वैसे ही प्रायश्चित्त में भी जानो, परन्तु यह काम सामयिक विद्वानों का है। सब देशों और सब कालों में भी सब काम नहीं हो सकते, इस कारण भी प्रायश्चित्तों में भेद किया है और करना ही चाहिये। जहां ब्रह्महत्या वा सुरापानादि महापातकों में आत्मघातरूप वधदण्ड ही प्रायश्चित्त लिखा है, वह उत्सर्ग है। कहीं किसी ब्रह्महत्या करने वाले के शरीर का बना रहना कई कारणों से अत्यन्त उपयोगी वा उचित है तो वहां वधदण्डरूप प्रायश्चित्त न कर, करा के अन्य प्रकार का प्रायश्चित्त करा लेना चाहिये। इत्यादि प्रकार एक-एक अपराध पर अनेक प्रायश्चित्त कहना सार्थक ही है।
मनुष्य जैसे कर्म का सेवन करता है वैसी ही उसके हृदय में वासना संचित होती है, उन्हीं वासनाओं का नाम संचित पाप वा पुण्य है अर्थात् पाप-पुण्यों का आधार मन ही है। जैसे ओषधि के सेवन से रोगों की निवृत्ति हो सकती है वैसे ही प्रायश्चित्त से निकृष्टसंस्काररूप पापों की निवृत्ति हो जाती है। अथवा जैसे दीपक से अन्धकार की, राग से द्वेष की और विद्या से अज्ञान वा मोह की निवृत्ति होती है वैसे प्रायश्चित्त से पापों की निवृत्ति जानो। सो योगभाष्य में कहा भी है कि- ‘जिस जन्मान्तर में फल देने वाले संचित कर्म का फल नियत नहीं कि अमुक देश, काल वा अवस्था में ऐसा फल अमुक पुरुष को अवश्य होगा। वैसे अनियतविपाककर्म की तीन दशाएं होती हैं। एक तो फलीभूत होने से उस संचितकर्म का नाश हो जाना, द्वितीय अपने साथी प्रधान पाप वा पुण्य के साथ मिल जाना और तृतीय नियत जिसका फल है ऐसे संचितकर्म के साथ दबा रहना, इनके उदाहरण ये हैं कि जैसे विद्याध्ययन कर लेने से जड़ता वा मूर्खता छूट जाती है विद्वत्ता और मूर्खता दोनों एक काल में एक शरीर में नहीं ठहर सकती वैसे जब प्रायश्चित्तादिरूप शुभ, पुण्य सूर्य का उदय हृदय में होता है तब अन्धकाररूप पाप का तत्काल नाश हो जाता है। द्वितीय जैसे जौ आदि अन्न के साथ घास के दाने पड़े रहते हैं परन्तु जौ बोया, जौ काटा, जौ धरा है इत्यादि व्यवहार जौ का ही होता है उसमें घास के दाने मिल कर पड़े रहने पर भी कुछ हानि नहीं करते इसी प्रकार थोड़ा पाप वा पुण्य अपने विरोधी पुण्य वा पाप के साथ मिला पड़ा रहता है कुछ हानि नहीं कर सकता केवल प्रधान का ही भोग वा व्यवहार होता है। तथा तृतीय प्रधान अपने विरोधी कर्म से तब तक दबा पड़ा रहे जब तक विरोधी की निर्बलता और उसकी प्रबलता देश-काल-वस्तु भेद से न हो।’१ इस प्रकार अनियतफल वाले दुष्ट कर्म के दण्डभोगरूप औषध से निवारण के लिए ही विशेषकर प्रायश्चित्तों की प्रवृत्ति है। और जो जन्मान्तर में नियत फल देने वाला संचितकर्म है उसकी असाध्य रोग के तुल्य प्रायश्चित्त से भी निवृत्ति नहीं हो सकती। पर वहां भी प्रायश्चित्त करना इस कारण निष्फल नहीं कि जब शुभकर्मरूप प्रायश्चित्त से उसके मन का सन्तोष वा दृढ़ता हो जाने से पाप का फल भोगने के समय में दुःख कम व्यापेगा। जैसे वही दुःख निर्बल और बलवान् को न्यूनाधिक व्यापता है। अथवा जैसे विद्वान्, अविद्वान् दो पुरुषों पर एक ही दुःख आकर पड़े तो अविद्वान् की अपेक्षा विद्वान् बहुत कम क्लेशित होता है, वैसे ही जिसने प्रायश्चित्त कर लिया है उसका मन प्रबल वा दृढ़ हो जाने से बड़े-बड़े दुःखों को छोटा-छोटा मानकर सहज में भोगकर पार हो जाता है।
तथा पाप न छूटने में प्रायश्चित्त करना इसलिये भी सार्थक है कि पुण्य कर्म के साथी प्रायश्चित्त के संचित हो जाने से शुभ फल होगा ऐसा विचारकर यथावसर सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये, यही धर्मशास्त्रकारों का आशय है। सो यह प्रायश्चित्त दण्डभोगरूप ही है। यदि कोई पुरुष किन्हीं ऐसे नवीन दुष्ट कर्मों को करे जिनका प्रायश्चित्त धर्मशास्त्र में विशेष कुछ नहीं कहा तो वहां सामयिक विद्वानों को चाहिये कि देश, काल और वस्तु के अनुकूल नवीन प्रायश्चित्त की कल्पना कर लेवें। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र के ग्यारहवें अध्याय में कहा भी है कि- ‘जिनके प्रायश्चित्त नहीं कहे गये ऐसे पापों से मुक्त होने के लिये शक्ति और पाप को देखकर प्रायश्चित्त की व्यवस्था बांध लेनी चाहिये।’१ इसीलिये बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘दस वा तीन वेदवेत्ता सदाचारी धर्मात्मा विद्वानों की सभा जिसको निश्चित करे उसको प्रायश्चित्तादिरूप से सभी लोग कर्त्तव्य निश्चित धर्म मानें कोई भी उसका उल्लंघन न करे।’२ इत्यादि। और धर्मशास्त्रकारों ने जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त कहा हो वह भी विद्वानों की सभा की सम्मति से ही सबको सेवना चाहिये। इस प्रकरण में यह कोई न समझे कि प्रायश्चित्त से पाप छूटने का सिद्धान्त खड़ा करने से बिना भोग किये पाप छूट जायेंगे तो ‘मनुष्य के द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।’३ यह सिद्धान्त कट जावे क्योंकि प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है, यह लिख चुके हैं। इसलिये कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यही सिद्धान्त ठीक है। जल और स्थलादिक में स्नान वा दर्शन करना मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु वह शास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध नवीन कल्पना है। यहां संक्षेप से प्रायश्चित्त के विषय में कहा गया है, इसकी विशेष व्याख्या भाष्य में देखनी चाहिये।