शंङ्का – समाधान
– डॉ. वेदपाल
शङ्का- शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।
अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।
– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल
समाधान- सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।
शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-
१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।
यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-
तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।
अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।
वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-
‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२
२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१
उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’
३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-
‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’
आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।
४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।
(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।
इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।
५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’
उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’
६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’
७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।
उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।
‘प्राण’ और ‘ओदन’, ‘बार्हस्पत्यौदन’ या ‘ब्रह्मौदन’
आश्चर्य है कि, इन सभी शब्दों में जो स्पष्ट समानता है, उसकी ओर विद्वानों का ध्यान अब तक क्यों नहीं गया? सभी में एक ही धातु है, ‘गति’ अर्थ वाली /अन्
; केवल कुछ प्रत्ययों का भेद है. और, वहाँ भी प्रत्यय ‘आ’ सब में है. इसके अतिरिक्त, यदि ‘प्राण’ के अन्य भेदों को देखा जाए तो उन सभी में यह ‘आ’ प्रत्यय बना रहता है. नीचे सभी को एक साथ रखकर देखने से ज्ञात होता है कि इन सभी प्रकार की आध्यात्मिक क्रिया-शक्तियों की गति-विधि (functionality) सब ओर सक्रिय है.:-
1. ‘बार्हस्पत्यौदन’ या ‘ब्रह्मौदन’ = ‘बृहस्पति से सम्बद्ध’ या ‘ब्रह्म’ का ‘ओदन’ + आ+ उत्+ /अन्; अर्थात् “ब्रह्म का ओदन, उसकी सब ओर नीचे से ऊपर को गतिशील ‘प्राण-शक्ति”.
2. ‘ओदन’ = आ+ उत्+ /अन्; अर्थात् “सब ओर से आ कर ऊपर की तरफ़ गतिशील विश्व-प्राण”.
3. ‘प्राण’ = प्र+ आ+ /अन्; अर्थात् “भीतर की तरफ़ आने-वाला सब ओर गतिशील आत्म-प्राण”.
4. ‘अपान’ = अप+ आ+ /अन्; अर्थात् “बाहर की तरफ़ जाने-वाला सब ओर गतिशील प्राण”.
5. ‘समान’ = सम+ आ+ /अन्; अर्थात् “सम-भाव से सब ओर फैलने-वाला गतिशील प्राण”.
6. ‘व्यान’ = वि+ आ+ /अन्; अर्थात् “विशेष रूप से व्याप्त होकर सब ओर गतिशील प्राण”.
7. ‘उदान’ = उत्+ आ+ /अन्; अर्थात् “ऊपर की तरफ़ उठने-उठाने वाला सब ओर गतिशील प्राण”.