“हम आर्यसमाज के बाहर देखते हैं कि मनुस्मृति का खुल्लमखुल्ला अपमान किया जाता है। मनु को भेषज समझने के स्थान पर लोग विष समझते हैं। समस्त हिन्दू समाज के दुर्गुणों का कारण मनु को समझा जाता है। मनुस्मृतियाँ कई स्थानों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गई हैं, जिससे मनु के लिए जो आदर के भाव लोगों में विद्यमान हैं, उनका सर्वनाश हो जाए। बहुत से लोग इसी बात में अपना गौरव समझते हैं कि मनु के प्रति घृणा उत्पन्न की जाए। इसका मुख्य कारण है कि वह विष जो समय-समय पर मनुस्मृति में क्षेपक के रूप में मिला दिया गया और जिसने मनु के उपदेशों को विषाक्त अन्न के समान बना दिया। स्त्री और शूद्रों के पददलित होने के कारण मनु को ही समझ लिया गया। जात-पाँत की बुराइयों का आधार मनु को समझा गया। इस प्रकार मनु को तिरस्कृत करने के अनेक कारण आ उपस्थित हुए। यद्यपि सच्ची बात यह थी कि जिन अविद्या आदि भ्रममूलक बुराइयों ने हिन्दूजाति पर आक्रमण किया, उन्होंने हिन्दू साहित्य और विशेषकर मनु पर भी आक्रमण किया है।
मनुस्मृति के क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं है, अपितु इसके कारण वे अवैदिक प्रगतियाँ थीं, जिनका विष मनु में भी प्रविष्ट हो गया है।“ (सार्वदेशिक मासिक: अगस्त 1947 पृ0 259-60)।