प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण

प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण
डा. अशोक आर्य
जो लोग ईश्वर के भक्त होते हैं , उनका शरीर मजबूत होता है , उनका मस्तिष्क ज्ञान से उज्ज्वल होता है तथा उनका ह्रदय प्रेम की स्निग्ध भावना के कारण पूर्णतया परिपूर्ण होता है । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।:-
इतोवासातिमीमहेदिवोवापार्थिवादधि।
इन्द्रंमहोवारजसः॥ ऋ01.6.10
इस मन्त्र में तीन बातों की ओर संकेत किया गया है :-
१ धन एश्वर्य का स्वामी
प्रभु भक्त तीनों लोकों में अपने उस पिता का निवास अनुभव करता है , उसे देखता है , सर्वत्र उसे प्रभु की महिमा दिखाई देती है । । इसे देखते हुए वह कह उठता है कि हमारा वह प्रभु परम एश्वर्यशाली है । वह दाता है , वह महादेव है । वह प्रभु ही देने वाला है । उससे ही हम याचना करते हैं , प्रार्थना करते हैं , धनेश्वर्य मांगते हैं । क्यों ? क्योंकि वह प्रभु ही धन आदि देने में सक्षम है । वह सक्षम कैसे है ? क्योंकि वह धन आदि का स्वामी है ।
स्पष्ट है कि मांगा उस से जाता है जिस के पास कुछ हो । जिसके पास स्वयं के पास ही कुछ नहीं है , वह दूसरों को क्या दे सकता है ? अर्थात कुछ भी नहीं । जब उसके पास कुछ है ही नहीं , वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाए हुए है तो एसे याचक के आगे अपना हाथ फ़ैला कर कौन याचना करेगा । हम जानते हैं कि प्रभु के पास सब की याचना पूर्ण करने की शक्ति है , साधन है , इसलिए ही इस पार्थिव जगत मे अपने हितों की पूर्ति के लिए सब लोग याचक बन कर उसके आगे हाथ फ़ैलाते हैं ताकि वह हमें धन आदि देकर उपकृत करे । वह पिता ही इस पार्थिव जगत में धन आदि देने वाले हैं ।
पार्थिव जगत या पार्थिव लोक वास्तव में पृथ्वी ही है । जब तक पृथ्वी सुदृढ नहीं होगी तब तक इस पर न तो कुछ वनस्पतियां ही पैदा होती हैं तथा न ही इस पर कोई जीव ही रह सकता है । अत: इस धन आदि का स्वामी पृथ्वी का सुदृढ होना आवश्यक होता है । उपर हम ने जो सुदृढता के लिए याचना की है , वह वास्तव में इस पृथ्वी के लिए ही की है । हमारा शरीर भी तो पृथ्वी रूप ही है , इसका निर्माण भी तो पंचतत्वों का ही परिणाम है । इसलिए ही हम अपने शरीर को पृथ्वी के समान दृढ , मजबूत देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम अपने उपर प्रभु कृपा चाहते हैं , आशीर्वादों से भरा उस पिता का हाथ अपने सर पर देखना चाहते हैं ताकि वह हमारे शरीर को वज्र के समान कठोर अथवा मजबूत बना दे । यह शरीर पत्थर के समान दृढ हो जावे तथा हम निरन्तर आसन , व्यायाम ,प्राणायाम करते हुए अपने इस शरीर को वज्र के समान बनाएं । यह ही हमारी प्रभु से कामना है , याचना है ।
२ प्रभु दीप्ती दो ,प्रकाश दो
हम सदा धनवान व साधन सम्पन्न बनना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि हमारे पास इतना धन हो कि हम अपनी आवश्यकताएं स्वयं पूर्ण करने में सक्षम हों , किसी के आगे हाथ न फ़ैलाना पडे । इस लिए हम उस पिता से वह धन मांगते हैं जो देवलोक में होता है । हम उससे द्युलोक का एश्वर्य मांगते हैं । अब प्रश्न उठता है कि द्युलोक का धन कौन सा होता है ? मन्त्र कहता है कि द्युलोक का धन होता है दीप्ति , तेज , प्रकाश । हम उस पिता से दीप्ति मांगते है , ज्ञान का प्रकाश मांगते हैं , तेज मांगते हैं । जिस प्रकार द्युलोक में सूर्य चमकता है , उसका प्रकाश समग्र विश्व में फ़ैल जाता है , सब दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं । एसा ही ज्ञान रुपी प्रकाश हम अपने अन्दर देने की कामना उस पिता से करते हैं । ताकि हम भी सब दिशाओं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर पाने में सशक्त हो सकें ।
३ शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हों
हमारा यह द्युलोक , हमारा यह अन्तरिक्षलोक महान है । इस महान अन्तरिक्ष से हम एसा धन , एसा एश्वर्य मांगते हैं , जो चन्द्र की शीतल , ठंडी किरणों के कारण शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हो ज्योत्स्नामय ही हो रहा है । हम चाहते हैं कि चन्द्र की शीतल चांदनी के ही समान हमारा ह्रदय रुपि अन्तरिक्ष (जो अब तक रिक्त पडा है , खाली पडा है ) भी प्रेम से भरपूर , स्निगधता की भावना से अत्यंत शीतलता को, ठण्डक को प्रभावित करने वाला हो । यह सब में शीतलता भरने में , बांटने में सश्क्त हो , सक्षम हो ।
डा. अशोक आर्य

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