श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखः- आर्य समाज के निष्ठावान् कार्यकर्त्ताओं, उपदेशकों, प्रचारकों व संन्यासियों से हम एक बार फिर सानुरोध यह निवेदन करेंगे कि ‘समाचार प्रचार’ की बजाय सैद्धान्तिक प्रचार पर शक्ति लगाकर संगठन को सुदृढ़ करें। समाज में जन शक्ति होगी तो राजनीति वाले पूछेंगे। राजनेता वोट व नोट की शक्ति को महत्त्व देंगे। बिना शक्ति के राजनेताओं का पिछलग्गू बनना पड़ता है। आर्य समाज को अपने मूलभूत सिद्धान्तों की विश्वव्यापी दिग्विजय और मौलिकता के साथ-साथ अपने स्वर्णिम इतिहास को प्रतिष्ठापूर्वक प्रचारित करने पर अपनी शक्ति लगानी चाहिये।
‘परोपकारी’ के पाठकों को यह जानकारी दी जा चुकी है कि भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम फिलौरी की एक जीवनी छापी है। इसमें बिना सोचे-विचारे ऋषि दयानन्द पर निराधार प्रहार किये गये हैं। ‘इतिहास की साक्षी’ नाम की पुस्तक छपवाकर सभा ने पं. श्रद्धाराम के शदों में ऋषि की महानता व महिमा तो दर्शा ही दी है। साथ ही पं. श्रद्धाराम के साथी पं. गोपाल शास्त्री जमू एवं पं. भानुदत्त जी के ऋषि के प्रति उद्गार विचार भी दे दिये हैं।
यहाँ एक तथ्य का अनावरण करना आवश्यक व उपयोगी रहेगा। हम सबको पूरे दलबल से इसे प्रचारित करना होगा। परोपकारी में प्रकाशित काशी शास्त्रार्थ पर प्रतिक्रिया देते हुए एक सुयोग्य सज्जन ने एक प्रश्न पूछा तो उसे बताया गया कि इस घटना के 12 वर्ष पश्चात् देश के मूर्धन्य सैंकड़ों विद्वानों का जमघट वेद से मूर्तिपूजा का एक भी प्रमाण न दे सका। इससे बड़ी ऋषि की विजय और क्या होगी?
सत सभा लाहौर के प्रधान संस्कृतज्ञ पं. भानुदत्त मूर्तिपूजा के पक्ष में नहीं थे। पं. श्रद्धाराम आदि पण्डितों के दबाव में इन्होंने ऋषि का विरोध करने के लिए नवगठित मूर्तिपूजकों की सभा का सचिव बनना स्वीकार कर लिया। प्रतिमा पूजन के पक्ष में व्यायान भी दिये।
जब कलकत्ता की सन्मार्ग संदर्शिनी सभा ने महर्षि को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना उनके विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी तब पं. भानुदत्त जी ने बड़ी निडरता से महर्षि के पक्ष में एक स्मरणीय लेख दिया। इनकी आत्मा देश भर के दक्षिणा लोभी पण्डितों की इस धाँधली को सहन न कर सकी।
श्री पं. भानुदत्त जी का कड़ा व खरा लेख कलकत्ता के ही एक पत्र में उक्त सभा के 19 दिन पश्चात् प्रकाशित हुआ था। आपने लिखा, ‘‘हा नारायण! यह क्या हो रहा है? एक पुरुष है और 100 ओर से उसे घसीटता है (अर्थात् घसीटा जाता है)। राजा राममोहन राय उठे, उसके बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर आये, फिर केशवचन्द्र सेन आये, और उनके बाद स्वामी दयानन्द जाहिर हो रहे हैं। सपादक महाशय! जब यह दशा हमारे देश की है, तो फिर बिना तर्क और वादियों के ग्रन्थ देखे घर में ही फैसला कर देना किसी प्रकार से योग्य नहीं प्रतीत होता, और न तो इससे वादियों के मत का खण्डन और साधारण समाज की सन्तुष्टि ही हो सकती है। सब यही कहेंगे कि सब कोई अपने-अपने घर में अपनी स्त्री का नाम ‘महारानी’ रख सकते हैं। अवतार आदि के मानने वालों तथा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा के स्थापन करने वालों को पूछो कि कभी दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘वेदभाष्य’ का प्रत्यक्ष विचार भी किया है? ………….प्रिय भ्राता! यदि कोई मन में दोख न करे तो ऐसी सभा के वादियों को इस बात के कहने का स्थान मिलता कि सरस्वती जी (ऋषि दयानन्द) के समुख होकर शास्त्रार्थ कोई नहीं करता, अपने-अपने घरों में जो-जो चाहे ध्रुपद गाते हैं।’’1
जिस पं. भानुदत्त को ऋषि के मन्तव्यों के खण्डन के लिए आगे किया गया, वही खुलकर लिख रहा है कि महर्षि के सामने खड़े होने का किसी में साहस ही नहीं। ऋषि जीवन के ऐसे-ऐसे प्रेरक प्रसंग तो वक्ता भजनोपदेशक सुनाते नहीं। ऋषि की वैचारिक मौलिकता व दिग्विजय की चर्चा नहीं होती। अज्ञात जीवनी की कपोल कल्पित कहानियाँ सुनाकर जनता को भ्रमित किया जाता है।