अब पठनपाठनविषयक विचार किया जाता है। इस मानवधर्मशास्त्र के चौथे अध्याय में पिच्यानवे (९५वें) श्लोक से लेकर एक सौ सत्ताईसवें (१२७वें) श्लोक पर्यन्त तेंतीस श्लोकों में अनध्याय का विचार किया गया है। यद्यपि संसार के सब कर्मों के किसी-किसी समय पर जिस किसी प्रकार अनध्याय होने चाहियें। अर्थात् मनुष्यों के चलाये सभी कर्म किसी-किसी उत्सवादि समय विशेष में अवश्य रुक जाते हैं। उस समय वा उन दिनों में कर्मचारी लोग छुट्टी पर समझे जाते हैं। और अनेक अवसरों में वे कर्म परतन्त्रता से मनुष्यों को अवश्य छोड़ने पड़ते हैं। जैसे ईश्वरीय सृष्टि में सूर्य के उदय, अस्त नियमपूर्वक सदा चले जाते, उनका निरोध कभी नहीं दीखता, क्योंकि उन सूर्यादि का नियामक सर्वज्ञ परमेश्वर है। अर्थात् सर्वज्ञ के चलाये नियम में अनध्याय वा निरोध कभी नहीं दीखता। वैसे मनुष्य के चलाये नियमों में नहीं हो सकता, क्योंकि वे अल्पज्ञ हैं। मनुष्य बीच-बीच में थकने, रोगी होने वा उदासीन होने से काम छोड़ देते हैं, उस समय स्वयमेव कार्यों का अनध्याय हो जाता है। जैसे ‘दुर्गन्धरूप प्रान्त में चित्त के व्याकुल होने से मनुष्य को शुभकर्म का आरम्भ नहीं करना चाहिये’, यह धर्मशास्त्रों में आज्ञा दी गयी है। और अनध्याय करने वा होने का यही प्रयोजन है कि जो उस निकृष्ट देश वा काल वा अवस्था में किया हुआ कर्म अच्छा वा विशेष फल देने वाला नहीं होता, इसलिये वैसे अवसर में निषेध किया गया है। तो भी सब कर्मों के रोकने वा अनध्याय का यहां विचार नहीं किया जाता, किन्तु पठनपाठन विषयक अनध्याय का विवेक करना प्रारम्भ किया है। अन्य विषयों का भी यथावसर विचार वा व्याख्यान होगा।
अधिकांश में तो समय विशेष (कि अमुक-अमुक समय में वेद को न पढ़ना चाहिये) में अनध्याय दिखाये हैं। सो कहीं जैसे उष्णता की अधिकता से ठीक-ठीक पढ़ना नहीं होता, किसी प्रकार उस समय के विशेष परिश्रम से उन्मादादि रोगों का होना भी सम्भव है। तथा अन्य भी चित्त को व्याकुल करने और एकाग्रता को बिगाड़ने वाले विघ्न आ जाने पर वेद नहीं पढ़ना चाहिये। क्योंकि उस समय का पढ़ना सुफल नहीं होता। तथा अनेक प्रदेशों में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे जहां मनुष्यों का अधिक संघट्ट हो, ग्राम, नगर, बाजार आदि वा जहां अधिक दुर्गन्ध हो, ऐसे प्रान्त आदि में वेद नहीं पढ़ना चाहिये। किन्हीं अवस्थाओं में वेद का पढ़ना निषिद्ध है। जैसे- झूठे, सोता हुआ अर्थात् लेटकर वा अशुद्ध, वा मैथुन किये पश्चात् बिना स्नान किये वा बिना वस्त्र बदले वेद को न पढ़े। इत्यादि अवस्थाओं में पढ़ने वाला अच्छे फल को नहीं पाता। इसलिये उस देश, काल और अवस्था में अनध्याय करना चाहिये। देशादि के अनुकूल होने पर भी पर्व अर्थात् अमावास्या, चतुर्दशी और पौर्णमासी तथा अष्टमी को सदा वेद का अनध्याय करे, क्योंकि सदैव काम वा पठन आदि का परिश्रम करते-करते बुद्धि थक जाती है, उसको अवकाश देकर शान्ति करने के लिये अनध्याय मानने चाहियें। इसी अभिप्राय से सब कार्यालयों में विद्वानों ने नित्य, नैमित्तिक अवकाश- छुट्टी देने का नियम चलाया है, कि जिस कारण बुद्धि वा शरीर के स्वस्थ हो जाने से फिर भी ठीक-ठीक काम चलते हैं, क्योंकि प्रतिदिन सब कार्यों में ठीक-ठीक मन नहीं लगता है, इसलिये पर्वों में सदा ही अनध्याय रखने चाहियें। और पर्वों में अनध्याय करने का यह भी प्रयोजन है कि उन दिनों में वेदोक्त रीति से मासेष्टि वा पक्षेष्टि आदि यज्ञों का नैमित्तिक विशेष विधान भी गृह्यसूत्रादिकों में दीखता है। तथा प्रायः ऐसे ही पर्व दिनों में पितृयज्ञ अर्थात् तर्पण-श्राद्ध का विशेष विधान है, अर्थात् उन पर्व दिनों में विशेष देवयज्ञ वा पितृयज्ञ करने के लिये भी पढ़ने-पढ़ाने वालों को अनध्याय रखना चाहिये। और जब विशेष यज्ञादि किये जावेंगे तो आप ही अवकाश न मिलने से नैमित्तिक कार्य में उस वेद के पढ़ने का अनध्याय ही रखना पड़ेगा, इस प्रकार सब अनध्याय प्रयोजन सहित हैं। और मुख्य कर तो वेद ईश्वरीय विद्या है, उसको बड़ी सावधानी और पवित्रतादि के साथ पढ़ना चाहिये, जिससे ठीक तात्पर्य समझ में आवे। और जिस-जिस देश वा काल वा दशा में चित्त के सावधान न रहने से उलटा समझनादि विपरीत वा दुःख होना सम्भव है, तब-तब अनध्याय कहा गया।
कोई लोग प्रतिपदा को अनध्याय मानते वा करते हैं, सो मानवधर्मशास्त्र से विरुद्ध है। क्योंकि उस समय अनध्याय रखना इससे व्यर्थ है कि चतुर्दशी, अमावस्या वा पूर्णमासी को अनध्याय हो चुका। ऐसे ही त्रयोदशी आदि में भी अनध्याय व्यर्थ है, और धर्मशास्त्र से विरुद्ध भी है। इस अनध्याय के प्रसग् में इस ग्रन्थ में जो कोई असम्भव वा विरुद्ध श्लोक होंगे, उनका विचार चतुर्थाध्याय के प्रक्षिप्त प्रकरण में वा भाष्य में देखना चाहिये। यहां इतने ही पर समाप्त करते हैं।