इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी

श्री कृष्ण गीता में कर्म के रूप बताते है एक स्वार्थ, दूसरा यशार्थ । उनकी रष्टि में स्वार्थ कर्म बन्धन का हेतु है और यक्षार्थ कर्म मोक्ष का।  यज्ञ का अर्थ हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं । जो कर्म व्यक्ति गत लाभ के लक्ष्य से किया जाता है, वह स्वार्थ है, और जो समष्टि के कल्याणार्थ किया जाता है, वह यज्ञार्थ है ।  समष्टि में व्यष्टि सम्मिलित है। व्यक्तियों से जातियां बनती हैं । जातियों के उत्थान से व्यक्तियां वञ्चित नहीं रहती। स्वार्थ सिद्धि यज्ञार्थ से स्वतः होती है। वस्तुतः स्वार्थ और यशार्थ में भेद नहीं । संकल्प भेद तो है परन्तु क्रिया एक ही है।  कोई रोटी खाता है इस लिये कि में मोटा होजाऊ, कोई मोटा होता … Continue reading इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी

स्वाहा: पण्डित चमूपति जी

स्वाहा सुन्दर आहुति हैं । वह आहुति जिस ऋतु अनुसार इस समय के रोगों को नाश करने के लिये डाली जाय । बुखार के दिनों में चिरायता, गिलोय इत्यादि ज्वर नाशक पदार्थ हो । अन्य व्यधियों में उन्हीं के लिये उपयोगी सामग्री हो यह स्वाहा हैं।  सामग्री में मिष्ट, पुष्टि प्रद, रोग नाशक तथा सुगन्धि युक्त सभी प्रकार पदार्थ हों।  सौषधि सेवन तीन रूपों में होता है । एक तो ठोस वस्तुओं को पीस कर कूट कर, पाक बना कर दूसरा द्रव रूप अर्थात् जोशादा तथा अर्क अथवा शर्वत की अवस्था में, तीसरे वायु में मिलाके, बाष्प तथा धूम के रूपमें।  पहिला प्रकार अतीव स्थूल है। इस से लाभ तो हैं परन्तु मल अधिक बनता है । इस विधि से … Continue reading स्वाहा: पण्डित चमूपति जी

अग्नि: पण्डित चमूपति जी

एक अग्नि भौतिक एक आत्मिक । भौतिक अग्नि चूल्हे में जलनी है, कुण्ड में प्रदीप्त होती है, कलाओं की चलाती हैं, कहीं उष्मा और कहीं प्रकाश का कारण होती है। दो पदार्थ आपस में टकराते है। संघर्षण से गर्मी निकलती है। वैज्ञानिक कहते हैं विद्युत् है । याज्ञिक विद्युत् को अग्नि का रूप मानते हैं। परोक्ष रूप में विद्युत् स्थान में काम कर रही है। अणुओं का का गुण गति है। और गति और उष्मा सहवर्ती हैं ।  प्राणियों का जीवन प्राणों की गति से है। जब तक प्राण चलते हैशरीर में उष्मा बनी रहती है। प्राणों का तांता रुका और शरीर ठण्ढा हुआ। लोक में ठण्डक और मृत्यु पर्याय है।  यही प्रलय और सृष्टि का भेद है प्रलय में … Continue reading अग्नि: पण्डित चमूपति जी

यज्ञ : पण्डित चमूपति जी

लोग पद्य से उतरते हैं, परन्तु कोरो गद्य से काम नहीं चलता । आजका संसार गद्यमय है । कवियो की कल्पना को सोतों का स्वप्न कहकर शुष्क विज्ञान में जागृति दंडने चले हैं । परन्तु जो सच पूछो तो है बात बात में पद्य । उपमा और रूपक के बिना एक वाक्य नहीं कहते । भला संसार को संसार ही क्यों कहो ? इसमें सृति है। गति है । यह कविता नहीं तो क्या है ? और सब गुण भुलाकर सृति मात्र से संसार का कहना कहां का सूधा विचार है। लो और उदाहरण लो काम चलता है ! भला काम भी चला करते है? जड़ में गति कैसी ? बात बात में कविता भरी है।  संसार के लिये उपमाओं … Continue reading यज्ञ : पण्डित चमूपति जी

देव : पण्डित चमूपति जी

वेद को चाहे कोई किसी दृष्टि से पढ़ो, दो भावों के आगे आंखें न मूंद सकोगे । यूरोपियन भाष्यकार इञ्जील के पूर्वभाग में पशुओं के बलिदान पूर्वक परमात्मा की प्रसन्नता का प्रहास पढ़ चुका है। वह इस विचार को मनुष्य के धार्मिक विचार का प्रथम स्फुरण समझता है । उसके पूर्वज अनेक देवार्चन की अबोध क्रीड़ा नित्यंप्रति करते थे। उसवेद में अनेक देवताओं की खोज इसी निमित्त ही तो है कि संसारभर की पूर्वजातियों को अबोध दिखाकर अपने पुरुषाओं की बाललीला पर परदा डाले । इसी भाव से प्रेरित होकर सही, पर वह कहता है, और चीख़ चिल्ला कर कहता है कि वेद यज्ञों की पुस्तक है. और उसमें देवों की स्तुति है। देव और यज्ञ–यह दो शब्द सनातन आर्य … Continue reading देव : पण्डित चमूपति जी

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः अप्रतिरथः । देवता अग्निः । छन्द निवृद् आर्षी अनुष्टुप् । यस्य कुर्मो गृहे हुविस्तमग्ने वर्द्धय त्वम्। तस्मै देवाऽअधि ब्रुवन्न्यं च ब्रह्मणस्पतिः ॥ -यजु० १७।५२ ( यस्य गृहे) जिसके घर में ( हविः कुर्मः ) हम अग्निहोत्र की हवि देते हैं, ( तम् ) उसे (अग्ने) हे जगदीश्वर व यज्ञाग्नि! ( त्वं वर्धय ) आप बढ़ाओ, उन्नत करो। ( तस्मै ) उसके लिए ( देवाः अधिब्रुवन्) विद्वान् लोग उपदेश और आशीर्वाद दें, (अयंचब्रह्मणस्पतिः२ ) और यह वेदज्ञ संन्यासी भी [उसे उपदेश व आशीर्वाद दे] । हमने पारिवारिक यज्ञ-सत्सङ्ग की योजना बना कर उसे क्रियात्मक रूप दे दिया है। हमारे समाज के एक-सौ सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य के घर पर बारी-बारी से प्रतिदिन पारिवारिक सत्सङ्ग लगता है। … Continue reading पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार

उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः विधृतिः। देवता इन्द्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् । वाजस्य मा प्रसवऽउद्ग्राभेणोदंग्रभीत् ।अधा सपत्नानिन्द्रों में निग्राभेणार्ध२ ॥ऽअकः ॥ -यजु० १७।६३ ( वाजस्य प्रसवः ) बल, विज्ञान आदि के उद्भव ने ( भा) मुझे (उद्ग्राभेण ) उद्ग्राभ द्वारा, उत्साहवर्धन द्वारा (उदग्रभीत् ) ऊँचा उठा दिया है। (अध) और ( इन्द्रः ) इन्द्र ने ( मे सपत्नान्) मेरे आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को (निग्राभेण ) निरुत्साह एवं धिक्कार के द्वारा ( अधरान् अकः ) नीचा कर दिया है। | हमारे आत्मा के पास दो हथियार हैं, एक उद्गाभ और दूसरा निग्राभ। उत् तथा नि पूर्वक ग्रहणार्थक ग्रह धातु से क्रमशः उद्गाह तथा निग्राह शब्द बनते हैं। वेद में ग्रह धातु के ह को भरे होकर उग्राभ … Continue reading उदग्राम और निग्राम -रामनाथ विद्यालंकार

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार

आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः विधृतिः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । प्राचीमनु प्रदिशं प्रेहि विद्वानुग्नेरग्ने पुरोऽअग्निर्भवेह। विश्वाऽआशा दीद्यान विभाह्यूर्जी नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे॥ -यजु० १७।६६ (अग्ने ) हे अग्रगामी मानव ! (विद्वान्) विद्वान् तू (प्राची प्रदिशम् अनु ) आगे बढ़ने की दिशा में (प्रेहि ) बढ़ता चल। (इह ) इस संसार में (अग्नेः पुरः अग्निः भव ) नायकों केभी आगे जानेवाला नायक बन। ( विश्वाः आशाः ) सब दिशाओं को ( दीद्यानः१ ) प्रकाशित करता हुआ (वि भाहि) विशेषरूप से चमक, यशस्वी हो। (नःद्विपदेचतुष्पदे ) हमारे द्विपाद् और चतुष्पाद् के लिए ( ऊ धेहि ) अन्न और बल प्रदान कर।। हे मानव! क्या तू जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रहेगा? देख, जो … Continue reading आगे की दिशा में बढ़ता चल -रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः वामदेवः । देवता यज्ञपुरुषः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नाचक्षे । घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययों वेतसो मध्यऽआसाम्॥ -यजु० १७।९३ (एताः ) ये वेद की ऋचाएँ ( अर्षन्ति ) निकल रही हैं। ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदयाकाश से (शतव्रजाः ) सैंकड़ों की संख्या में, जो (रिपुणा ) यज्ञ के शत्रु द्वारा ( न अवचक्षे ) रोकने योग्य नहीं हैं। इसके अतिरिक्त (घृतस्थे धाराः) घी को धाराओं को (अभिचाकशीमि) देख रहा हूँ। ( आसां मध्ये ) इनके मध्य में ( हिरण्ययः वेतसः ) अग्निरूप सुनहरा वेतस है। मैं वेद की ऋचाओं के पाठपूर्वक यज्ञ कर रहा हूँ। वेद की ऋचाएँ सैंकड़ों की संख्या में मेरे हृदयाकाश से निकल रही हैं। मैं इनका पाठ करता … Continue reading यज्ञ का चित्रण-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार  ऋषयः देवा: । देवता धान्यदः आत्मा। छन्दः भुरिग् अतिशक्चरी। व्रीहर्यश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे तिलाश्च मे मुद्गाश्च मे खल्वाश्च मे प्रियङ्गवश्च मेऽणवश्च मे श्यामाकाश्च मे नीवाराश्च मे गोधूमश्च मे मसूराश्च मे युज्ञेन कल्पन्ताम्॥ -यजु० १८ । १२ | ( व्रीहयः च मे ) मेरे धान, ( यवः च मे ) और मेरे जो, ( माषाः च मे ) और मेरे उड़द, (तिलाः च मे ) और मेरे तिल, ( मुगाः च मे ) और मेरे मुँग, ( खल्वाः च मे ) और मेरे चने, ( प्रियङ्गवः च मे ) और मेरे अँगुनी चावल, ( अणवः च मे ) और मेरे किनकी चावल, ( श्यामाकाः च मे ) और मेरे साँवक चावल, (नीवाराः … Continue reading यज्ञ से विविध अन्नों की प्रचुरता-रामनाथ विद्यालंकार

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)