मैं अभी कह चुका हूँ कि परमात्मा ने ही इस सूर्य-चन्द्र को बनाया है । परंतु पुराण कुछ और ही कहते हैं । वे इस प्रकार वर्णन करते हैं कि कश्यप ऋषि की अदिति, दिति, दनु, कद्रू, बनिता आदि अनेक स्त्रियाँ थीं । इसी अदिति से आदित्य अर्थात् सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र आदि उत्पन्न हुए ।
भागवतादि यह भी कहते हैं कि अत्रि ऋषि के नेत्र से चन्द्र उत्पन्न हुआ है; यथा-
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः । यस्मिन्नैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्त्तयः ॥ सहस्रशिरसः पुंसो नाभिह्रदसरोरुहात् । जातस्यासीत्सुतो धातुरत्रिः पितृसमो गुणैः ॥
तस्य दृग्भ्योऽभवत्पुत्रः सोमोऽमृतमयः किल ।
विप्रौषध्युडुगणानां ब्रह्मणा कल्पितः पतिः ॥
कोई कहता है कि समुद्र से चन्द्र की उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार मेघ कैसे बनता, वायु क्यों कभी तीक्ष्ण और कभी मन्द होती, पृथिवी से किस प्रकार गरम जल और अग्नि निकलता, ज्वालामुखी क्या वस्तु है, भूकम्प क्यों होता, विद्युत् क्या वस्तु है, मेघ में भयंकर गर्जना क्यों होती, इत्यादि विषय विज्ञान शास्त्र के द्वारा प्रत्येक पुरुष को जानने चाहिएँ” नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।” मनुष्य की उत्पत्ति ही इसी कारण हुई है । जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है । वेदों और शास्त्रों में इसकी बहुधा चर्चा आई है। हम अपने चारों तरफ सहस्रों पदार्थ देखते हैं । उनको विचार दृष्टि से अवश्य जानना चाहिए । आकाशस्थ ताराएँ कितनी बड़ी और कितनी छोटी हैं, वे पंक्तिबद्ध और बन के समान क्यों दीखतीं, पृथिवी से ये कितनी दूरी पर हैं ! एवं नक्षत्रों की अपेक्षा चन्द्र क्यों बड़ा दीखता पुनः इसके इतने रूप कैसे बदलते ! प्रायः सब ही ग्रह पूर्व से पश्चिम की ओर आते हुए क्यों दीख पड़ते। इसी प्रकार पृथिवी पर नाना घटनाएँ होती रहती हैं- कभी वर्षा ऋतु में मेघ भयङ्कर रूप से गर्जता, बिजली लगकर कभी- कभी मकान और बड़े-बड़े ऊँचे वृक्ष जल जाते, मनुष्य मर जाते, बिजली कहाँ से और कैसे उत्पन्न होती, मेघ किस प्रकार बनता, इतने जल आकाश में कहाँ से इकट्ठे हो जाते, पुनः मेघ आकाश में किस आधार पर बड़े वेग से दौड़ते, वहाँ ओले कैसे बनते, फिर थोड़ी ही देर में मेघ का कहीं पता नहीं रहता, इत्यादि बातें अवश्य जाननी चाहिएँ ।
ऐ मनुष्यो ! ये ईश्वरीय विभूतियाँ हैं, इन्हें जो नहीं जानता वह कदापि ईश्वर को नहीं जान सकता। वह अज्ञानी पशु है । स्वयं वेद भगवान् मनुष्य जाति को जिज्ञासा की ओर ले जाते हैं, आगे इसी विषय को देखिये । अतः जिज्ञासा करना मनुष्य का परम धर्म है ।
ऐ मनुष्यो ! इस जगत् में यद्यपि परमात्मा साक्षात् दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि इसकी विभूतियाँ ही दीख पड़तीं और इन्हीं में वह छिपा हुआ है । अतएव बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि कह गये हैं कि “आराममस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन ” । इस परमात्मा की वाटिका को ही सब कोई देखते हैं और इसी के द्वारा उसको देखते हैं, साक्षात् उसको कोई नहीं देखता । अतः इस जगत् के वास्तविक तत्वों को जो सदा अध्ययन किया करता है वह, मानो, परम्परा से ईश्वर का ही चिन्तन कर रहा है । व्यास ऋषि इसी कारण ब्रह्म का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि ‘जन्माद्यस्य यतः ” जिससे इस जगत् का जन्म, स्थिति और संहार हुआ करता है, वही ब्रह्म है । इससे ब्रह्म और जगत् का सम्बन्ध बतलाया, अतः यदि जगत को जान लेवे तो, मानों, ईश्वर की रचना जान ली, यह कितनी बड़ी बात है । अत: जिज्ञासुओ ! प्रथम ईश्वर की रचना की ओर ध्यान दो ।