अब नववें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले तेईस और चौबीस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। बाईसवें श्लोक में सिद्धानुवाद की रीति से लिखा है कि पति के अच्छे-बुरे गुणों की अधिकता से उस पति के साथ विवाही गयी स्त्री में भी वैसे ही अच्छे बुरे-गुणों की अधिकता होनी सम्भव है अर्थात् धर्मात्मा, सुपात्र, सुशील पुरुष के साथ विवाही गयी स्त्री भी पुरुष के तुल्य शुभ गुणों वाली हो जाती है और अधर्मी आदि दुष्ट गुण वाले के साथ विवाही स्त्री भी पापिनी हो जाती है। इस सिद्धानुवाद का प्रयोजन यह है कि धर्मात्मा, विद्वान् और सुशील पुरुष को कन्या देनी चाहिये। सो ‘उत्तम, मध्यम वा निकृष्ट गुण प्रायः सग्ति के अनुसार मनुष्य में आते हैं।’१ इसी सग्ति से होने वाले फल का व्याख्यानरूप यह कथन है [इसमें कोई शटा करे कि सग्ति दोनों की दोनों से होती है जैसे पुरुष के साथ स्त्री का सग् होता वैसे स्त्री के साथ पुरुष का भी सग् रहता है, जब स्त्री पुरुष के समान गुण वाली हो जाती है तो पुरुष स्त्री के तुल्य गुणों वाला क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि मुख्य का वा स्वाधीन का गुण गौण वा पराधीन में लग जाता है और प्रायः पुरुष ही मुख्य रहता है। यदि कहीं स्त्री की स्वाधीनता और प्रधानता हो तो वहां स्त्री के गुण पुरुष में अवश्य जावेंगे] इसी सग्ति का फल दिखाने के लिये दो उदाहरण उक्त दोनों पद्यों में कहे हैं। सो वहां उदाहरण की अधिक अपेक्षा ही नहीं दीखती और किसी प्रकार कुछ अपेक्षा हो भी तो वैसी आधुनिक स्त्रियों का उससे बहुत प्राचीन मानव धर्मशास्त्र में वर्णन कैसे घटे अर्थात् किसी प्रकार नहीं, क्योंकि पिता के जन्म-समय में आगे होने वाले पुत्र के कर्मों का वर्णन कोई नहीं कर सकता। जब वसिष्ठ ने अक्षमालानामक मेहतरानी के साथ और मन्दपालनामक ऋषि ने शारग्ी नाम चिड़िया के साथ विवाह किया उससे पहले ही भृगु ने इस धर्मशास्त्र का निर्माण वा प्रचार किया था। क्योंकि अक्षमाला को कोई भाष्यकारों ने भंगिन कहा है। ऐसी नीच स्त्रियों के साथ ब्राह्मणादि का विवाह होकर यदि वे स्त्रियां ब्राह्मणादि उत्तम वर्णस्थ हो जावें तो जो शूद्रा वा अन्त्यज के साथ विवाह करने से धर्मशास्त्रकारों ने बहुत बुरा फल दिखाया है कि२- ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लोग यदि कामी वा अज्ञानी होकर नीच वा अतिनीच जाति की स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, तो उनके बाल-बच्चों सहित सब कुल शूद्र वा नीच हो जाता है। तथा अत्रि और औतथ्य ऋषि का मत (राय) है कि शूद्रा के साथ विवाह करने से वेदी पर ही पतित हो जाते, शौनक का मत है कि शूद्रा में सन्तान होने पर पतित होते और भृगु के मत से सन्तान के सन्तान हो जाने पर पतित हो जाते हैं।’१ इत्यादि कथन में विरोध आवेगा। अर्थात् यदि चर्मकारी आदि नीच स्त्रियां ब्राह्मणादि के साथ विवाही जाने से उत्तम हो सकती हैं, ऐसा धर्मशास्त्र का सिद्धान्त होता तो शूद्रा के साथ विवाह करने में पूर्वोक्त प्रकार दोष नहीं दिखाते। यदि कोई कहे कि ‘समर्थ को दोष नहीं लगता’ इसलिये वैसे तपस्वी के लिये शूद्रा के साथ विवाह का निषेध नहीं, किन्तु सर्वसाधारण को है तो इसका उत्तर यह है कि असमर्थ वा साधारण के लिये भी शूद्रा के साथ विवाह का निषेध नहीं हो सकता। क्योंकि असमर्थ तो स्वयमेव निकृष्ट ही हैं उनकी शूद्रा के साथ विवाह से भी विशेष हानि नहीं। किन्तु बड़े वा प्रतिष्ठितों की ही विशेष हानि है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सग्ति से होने वाले गुण-दोष वर्ण वा जाति का भेद वा लौट-पौट नहीं कर सकते किन्तु एक जाति वा वर्ण में जो स्त्री पति की अपेक्षा विद्यादि उत्तम गुणों में न्यून है वह विद्या-शिक्षादि उत्तम गुणों वाली शान्तिशील हो सकती है। और वेदादि धर्मशास्त्र जानने वाला तपस्वी वसिष्ठ के तुल्य विद्वान् पुरुष चाण्डाली के साथ विवाह करे यह कोई बुद्धिमान् विश्वास नहीं करेगा। और मन्दपाल ऋषि ने किसी शारग्ी नामक चिड़िया के साथ विवाह किया यह भी ठीक नहीं। विवाह करने का जो फल वा प्रयोजन है वह चिड़िया से कैसे सिद्ध हुआ वा कोई कैसे सिद्ध कर सकता है ? यह बात उसी श्लोक को बनाकर मिलाने वाले से विचारशील को पूछना चाहिये। यहां अधिक लिखना व्यर्थ है। उक्त प्रकार के अनेक दोष होने से पूर्वोक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
आगे पेंसठ से अड़सठ (६५-६८) तक चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यदि कोई बीच के चारों पद्यों को छोड़कर ६४ से आगे ६९वें पद्य को पढ़े वा सग्ति मिलाना चाहे तो ठीक मेल मिल जाता है, किसी प्रकार का प्रकरण-विरोध नहीं है। और उन श्लोकों के बीच में रखने न रखने से एक ही सी सग्ति मिल जाती है। इस कारण वे श्लोक प्रक्षिप्त जानने चाहियें। यदि प्रारम्भ से रचकर रखे श्लोक बीच से निकाल दिये जावें तो जैसे माला के बीच से एक दो मूंगा निकाल देने से उन की सग्ति (सिलसिलारूप एक दूसरे के साथ मिलावट) बिगड़ जाती है उनमें बीच पड़ जाता है, वैसे यहां भी सग्ति बिगड़ जानी चाहिये थी, पर ऐसा नहीं होता। इसलिये वे चारों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन नियोग का खण्डन करने वाले चार श्लोकों पर सर्वज्ञनारायण भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘इस उक्त प्रकार से अन्य ऋषियों के मतानुसार नियोग का विधान करके मनु जी अपने मतानुसार खण्डन करते हैं’१ सो यह बात भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब पहले प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि- ‘अब आगे स्त्रियों को आपत्काल में वर्त्तने योग्य धर्म कहेंगे।’२ इससे स्पष्ट मनु जी का सिद्धान्त आपत्काल में निर्वाह करने के लिये आता है और वह सिद्धान्त वेद के भी सर्वथा अनुकूल है। वेद में नियोग करने के लिये स्पष्ट ही आज्ञा दी गयी है।३ जैसे- ‘हे नारि= स्त्रि ! तू गतासुम्, एतम्, उपशेषे= इस मरे हुए पति के समीप शोक में मग्न पड़ी है, उसको छोड़कर अभिजीवलोकम्= जीते हुए प्राणियों के समूह को देखकर उदीर्ष्व= उठ अर्थात् जीते हुए बाल-बच्चों आदि की रक्षा का उपाय कर। और उठके अर्थात् सचेत होके एहि= दूसरी ओर को आ तव, हस्तग्राभस्य, दिधिषोः, पत्युः= तेरे हाथ को ग्रहण करने वाले द्वितीय पति के इदम्, जनित्वम्, अभिसम्बभूथ= इस स्त्रीपनरूप सम्बन्ध को सब ओर से प्राप्त हो।’ ऋग्वेद के इस दूसरे पति की आज्ञा देने वाले मन्त्र में अर्थ का भी विवाद नहीं है। इस मन्त्र का यही अर्थ सायणादि भाष्यकारों ने भी माना वा लिखा है। और मेधातिथि नामक मनु के भाष्यकार ने भी लिखा है कि-“को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ।”४ इत्यादि नियोग विधायक मन्त्र भी वेदों में दीखते हैं। और उद्वाहिक शब्द से वेदी पर पढ़े जाने वाले ‘गृभ्णामि ते०’५ इत्यादि मन्त्र लिये जाते हैं, यह मेधातिथि का अभिप्राय है। सो यह विचार ठीक ग्रहण करने योग्य नहीं। क्योंकि जब वेद में नियोग का कर्त्तव्य होना लिखा है फिर नियोग की निन्दा करने वाले वेदविरोधी स्पष्ट ही सिद्ध हो गये। इस पर अधिक विचार की कुछ आवश्यकता नहीं। ‘नोद्वाहिकेषु०’६ इत्यादि चार श्लोकों को सत्य ठहराने के लिये जो मेधातिथि आदि की कल्पना हैं वे सर्वथा निर्बल हैं। विवाहसम्बन्धी मन्त्रों में नियोग नहीं कहा इससे बुरा है, यह कथन ऐसा होगा कि जैसे कोई कह दे कि अग्निहोत्रविधायक मन्त्रों में नहीं कहा इसलिये वैश्वदेव करना बुरा है। अरे भाई ! विवाह द्वितीय प्रकरण है, उसमें आपत्काल का नियोग क्यों कहा जाता ? भिन्न प्रकरण में प्रमाण न देने से कोई विषय बुरा नहीं हो सकता। कदाचित् वेद में नियोग स्पष्ट रूप से न कहा होता, किन्तु ध्वनिमात्र निकलने पर भी प्रमाण माना जा सकता है और वेद से विरुद्ध होता अर्थात् वेद में नियोग का निषेध किया होता तो अवश्य खण्डनीय कह सकते थे। राजा वेन के समय से नियोग की प्रवृत्ति दिखाने से नियोग का निषेध करने वाले का तात्पर्य यह है कि नियोग करने की आज्ञा वेद में नहीं है। क्योंकि नियोग वेदोक्त हो तो उसका प्राचीन वा सनातन होना वेदोक्त होने से ही आ जावेगा। क्योंकि जब वेद सनातन हैं तो उनमें कहा विषय भी सनातन हुआ। इसीलिये निषेधक ने पहले नियोग का वेदोक्त होना खण्डित करके वेन के राज्य से उसके चलने का समय दिखाकर नियोग को आधुनिक ठहराया है। इत्यादि कारण मेधातिथि की उद्वाहिक शब्द के अर्थ पर कल्पना करना ठीक नहीं और पूर्वोक्त प्रकार से तथा मेधातिथि आदि की सम्मति से नियोग वेदोक्त है, ऐसा सिद्ध हो जाने से पूर्वोक्त चारों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
आगे एक सौ अट्ठाईस और एक सौ उन्तीस (१२८,१२९) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इनमें असग्त पुराणाभासों के बनाने वाले लोगों ने पौराणिक कथाओं की पुष्टि के लिये परकृतिनामक अर्थवाद दो पद्यों से कहा है। और पुराणों में सब जगत् की उत्पत्ति कश्यप की तेरह स्त्रियों से ही दिखायी है। सो जब मनु के सिद्धान्त से ही विरुद्ध है फिर पीछे उत्पन्न हुई पौराणिक कथा का प्राचीन मानव धर्मशास्त्र में अनुकूल मेल कैसे हो सकता है ? इसलिये वे दोनों श्लोक प्रक्षिप्त ही जानो। आगे तीन सौ चौदह से तीन सौ उन्नीस (३१४-३१९) तक छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। तीन सौ तेरहवें श्लोक में जो विधिवाक्य है कि राजा ब्राह्मणों को कोपित न करे अर्थात् अधिक न सतावे, इसका अर्थवाद जो ठीक-ठीक होना चाहिये सो उसी श्लोक के उत्तरार्द्ध में है। और उसी विधिवाक्य का इन छह श्लोकों में भी अर्थवाद दिखाया है, सो ठीक नहीं है। अनुमान होता है कि अपने कुल का हित चाहने वाले संस्कृतज्ञ राजमन्त्री आदि ब्राह्मणों ने पक्षपात से ये श्लोक यहां मिला दिये हैं कि जिससे हमारे कुल के मूर्ख दुष्कर्मी ब्राह्मणों को भी कोई दण्ड न देवे, किन्तु सदा दानादि से सम्मान करते रहें। इन छह श्लोकों में भी असम्भव पुराणों की कथा दिखायी हैं। ब्राह्मणों ने अग्नि को सर्वभक्ष्य बनाया इत्यादि। क्या परमेश्वर के रचे अग्नि में सब वस्तु नहीं जल सकते थे ? तो पहले की शक्ति गिना देनी चाहिये कि अमुक-अमुक पदार्थों को पहले अग्नि जला सकता था, पीछे सब जलाने की शक्ति ब्राह्मणों ने की, इत्यादि सब असम्भव है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर ने जो पदार्थ जैसे गुण वाला रचा है उसमें वही गुण सदा रहेगा उसको कोई लौट-पौट नहीं कर सकता। समुद्र का जल खारा होने से पिया नहीं जाता, यह पृथिवी का गुण है। अन्यत्र भी अनेक कुओं में अत्यन्त खारा जल निकलता है, वह पीने योग्य नहीं रहा सो ऐसा किस ब्राह्मण ने किया ? यह उसी पौराणिक से पूछना चाहिये। इसी प्रकार अन्य भी अनेक बातें असम्भव हैं जिस अग्नि में विष्ठा मांसादि निकृष्ट वस्तु जलाया हो उसी अग्नि से यदि कोई रोटी आदि पदार्थ को पकावे तो अग्नि के साथ आये दोष से भक्ष्य भी दूषित हो जाता है। इसी कारण मरघट के अग्नि से पाक न बनाना चाहिये, यह शिष्टों की सम्मति है। यदि अग्नि में दोष न होता तो उस श्मशान के अग्नि से भी भोजन बनाना उचित समझा जाता। यदि मूर्ख पापी सब अच्छे गुणकर्मों से रहित ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए नाममात्र के ब्राह्मण भी विद्वानों के तुल्य पूज्य हो जावें तो श्राद्धप्रकरण में जो श्रेष्ठों की पंक्ति में न बैठाने योग्य नीच ब्राह्मण गिनाये हैं, जिनको श्राद्ध में भोजन न कराना चाहिये उनका परिगणन भी व्यर्थ हो जावे। तथा- ‘मूषा पकड़ने को जैसे बिल्ली ध्यान लगाती वा जैसे मच्छी पकड़ने को बगुला ध्यान लगाता वैसे जो दूसरों के पदार्थ हर लेने के लिये ध्यान लगा के बैठते हैं, अवसर पाते ही झट ले लेते हैं और तीसरे वेद को न जानने वा पढ़ने वाले इन तीन प्रकार के ब्राह्मणों का जल से भी सत्कार न करे। धर्मपूर्वक परिश्रम से संचित किया भी धन यदि उक्त तीन प्रकार के ब्राह्मणों को दिया जावे तो उस दान से दाता को वर्त्तमान जन्म में और दान लेने वाले को जन्मान्तर में दुःखरूप फल होता है। और जैसे काठ का हाथी और केवल चाम में भूसा भरकर बनाया हरिण, हाथी और हरिण का काम न दे सकने से व्यर्थ वा नाममात्र हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों हाथी, हरिण और ब्राह्मण नाम धरानेमात्र हैं किन्तु वास्तव में नहीं, इत्यादि।’१ यदि सर्वथा ब्राह्मण पूज्य हों तो पूर्वोक्त वचन सब विरुद्ध पड़ेंगे अर्थात् ये दोनों बातें सत्य नहीं हो सकतीं किन्तु एक ही सत्य हो सकती है। इससे उक्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इस प्रकार इस नवम अध्याय में १४ चौदह श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष तीन सौ बाईस (३२२) श्लोक शुद्ध प्रतीत होते हैं।