मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पूजा वा उपासना विषय में मूर्त्तिपूजा का विचार किया जाता है। इस मानव धर्मशास्त्र में सावित्री मन्त्र१ के जप की सब प्रकार प्रधानता२ दिखायी है। इस मन्त्र में सब जगत् का रचने वाला परमेश्वर ही उपासना के योग्य बतलाया गया है। किन्तु कोई पत्थर आदि की मूर्त्ति उपासना के योग्य नहीं ठहराई गई। इसी प्रकार की उपासना वेद और योगशास्त्र के अनुकूल है। वेद में लिखा है कि- ‘तू एक असहाय अनुपम आदि विशेषण युक्त है, ऐसी हम उपासना करते हैं।’३ तथा योगशास्त्र में लिखा है कि- ‘ओटार वा ओटारयुक्त गायत्री का वाणी वा मन से जप करना तथा उसके वाच्यार्थ परमात्मा का अपने चित्त में बार-बार विचार और ध्यान तथा उसके गुणों का चिन्तन करना उपासना है।’४ मानव धर्मशास्त्र के अन्य स्थलों में भी जहां-जहां उपासना का प्रकरण है, वहां-वहां वेदमन्त्रों के साथ ही प्रतीत होता है। ऐसा मानकर ही अग्निहोत्र में भी उपस्थानसंज्ञक वेदमन्त्रों से मुख्यकर परमात्मा की ही स्तुति की है। जिस कर्म में वा जिस कर्म से देव नाम परमेश्वर की पूजा होती है, वह अग्निहोत्र कर्म देवयज्ञ कहाता है। अर्थात् उपासना प्रसग् में देव शब्द परमेश्वर का वाचक है, यही सिद्धान्त जानो। बारहवें अध्याय में मनु ने भी कहा है कि- ‘सर्वव्याप्त परमेश्वर का ही नाम देव है, अर्थात् जितने देव के अवान्तर भेद आते हैं, वे सब आत्मा के नाम हैं और उसी एक में सब संसार ठहरा हुआ है।’४ इससे जहां-जहां देवता पद से उपासना कही जाती है, वहां-वहां आत्मा की ही उपासना जाननी चाहिये। इसी कारण “देवताभ्यर्चनम्” इत्यादि वाक्यों से परमात्मा की ही उपासना वेदमन्त्रों द्वारा सिद्ध होती है। प्रातःकाल की उपासना में और भी कहा है कि- ५. ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।। ‘प्रातः कुछ        अन्धेरे ही उठकर वेद के तत्त्वार्थ [कि मुख्यकर वेद में जिसका व्याख्यान है उस] परमात्मा का चिन्तन करे।’५ यहां वेद शब्द के साथ रहने से पौराणिक पाषाणादि मूर्त्तियों का चिन्तन नहीं आ सकता। तथा प्रामाणिक सज्जन विद्वानों के माने हुए व्याकरण-कोषादि ग्रन्थों में पाषाणादि मूर्त्तियों का वाचक देवशब्द कहीं नहीं मिलता। इस कारण भी पत्थर आदि की जड़ मूर्त्तियों का पूजन मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल विहित नहीं है। और न कहीं इस ग्रन्थ में पत्थर आदि जड़ से बनीं प्रतिमाओं की परमात्मा बुद्धि से पूजा करनी चाहिये, ऐसी आज्ञा है। और देव शब्द से परमेश्वर का ही पूजन माना गया है- ‘सर्वान्तर्यामी सर्वव्याप्त एक देव- परमेश्वर सब प्राणियों में गुप्त हो रहा है।’१ इत्यादि उपनिषद् के वाक्यों से भी सिद्ध है कि जो उपासना प्रसग् में देव शब्द परमात्मा का ही वाचक है। इससे मानव धर्मशास्त्र में भी नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, निराकार, निर्विकार और सच्चित्, आनन्दस्वरूप परमात्मा की ही उपासना का विधान किया गया है, किन्तु मूर्त्ति आदि की पूजा का नहीं, यही सिद्धान्त है।

2 thoughts on “मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा”

    1. वेदार्थ कल्पद्रुम उस पुस्तक का नाम है जिसमे वेदार्थ पारिजात का खंडन की गयी है | इसके लेखक आचार्य विशुधानन्द मिश्र शास्त्री जी हैं |

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