मूर्तिपूजा और ऋषि दयानन्द
पिछले अंक का शेष भाग…..
- पुराभवं पुरा भवा पुराभवश्च इति पुराणं पुराणी पुराणः।
- 2. वहाँ ब्राह्मण पुस्तक जो शतपथादिक हैं, उनका ही नाम पुराण है तथा शंकराचार्य जी ने भी शारीरक भाष्य में और उपनिषद् भाष्य में ब्राह्मण और ब्रह्म विद्या का ही पुराण शबद से अर्थ ग्रहण किया है।
- 3. तीसरा देवालय और चौथा देव पूजा शबद है। देवालय, देवायतन, देवागार तथा देव मन्दिर इत्यादिक सब नाम यज्ञशालाओं के ही हैं।
- 4. इससे परमेश्वर और वेदों के मन्त्र उनको ही देव और देवता मानना उचित है। अन्य कोई नहीं।
(-स्वामी दयानन्द, प्रतिमा पूजन विचार, पृ. 483-485, दयानन्द ग्रन्थमाला)
ऋषि दयानन्द के जीवन में मूर्तिपूजा की अवैदिकता और अनौचित्य पर वाद-संवाद, शास्त्रार्थ, भाषण, चर्चा, परिचर्चा तो बहुत मिलती है, परन्तु एक आश्चर्यजनक प्रसंग भी मिलता है। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों और मान्यताओं को लेकर कोलकाता की आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा का एक अधिवेशन 22 जनवरी रविवार सन् 1881 को कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भारत के 300 विद्वानों की उपस्थिति में हुआ, जिसमें स्वामी दयानन्द के मन्तव्यों को सर्वसमति से अस्वीकार किया गया। इसमें आश्चर्य और महत्त्व की बात यह है कि इस सभा में पूर्व पक्षी के रूप में स्वयं स्वामी दयानन्द या उनका कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं था, न ही निमन्त्रित किया गया था और न ही किये जाने वाले प्रश्नों के उनसे उत्तर माँगे गये थे। यह कार्य नितान्त एकपक्षी और सभा की ओर से ऋषि दयानन्द की मान्यता को अस्वीकार करते हुए पाँच उत्तर स्वीकृत हुए थे।
आर्यसमाज के आरमभिक काल के एक और सुयोग्य लेखक बाबा छज्जूसिंह जी द्वारा लिखित व सन् 1903 ई. में प्रकाशित Life and Teachings of Swami Dayananda पुस्तक की भी एतद्विषयक कुछ पंक्तियाँ यहाँ देना उपयोगी रहेगा। विद्वान् लेखक ने लिखा है-
“While Swami Dayananda was at Agra, a Sabha called the Arya Sanmarg Sandarshini Sabha, was established at Calcutta, with the object of having it decided and settled, once for all, by the most distinguished representatives of orthodoxy in the land (that could be got hold of for the purpose of course) that Dayanand’s views on Shraddha, Tiraths, Idol-Worship, etc. were entirely unorhodox and unjustifiable. Sanskrit scholars rising to the number of three hundred responded to the call of the Sabha, and a grand meeting composed of the local men and of the outsiders, came off in the Senate Hall on 22nd January, 1881. It is significant that not one of the numerous distinguished pandits present thought of suggesting or moving that the man upon whom the Sabha was going to sit in judgement, should be condemned or acquitted after he had been fully heard. It may be urged that the Sabha was not in humour to acquit Dayanand under any circumstances, but still he should have been permitted to have his say before he was condemned. Surely, one man could be dealt with very well by and assemblage so illustrious and so erudite. But the Pandits and their admirers were wise in their generation. Dayanand, though ine, had proved too many for still a more learned and august gathering at Benares.”1
(1. Life and Teachings of Swami Dayananda, Page. 39, Part-II)
आर्य सन्मार्ग सन्दर्शिनी सभा कलकत्ता और स्वामी दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त- सबको ज्ञात हो कि 22 जनवरी सन् 1881 ई. को रविवार के दिन सायंकाल सीनेट हॉल कलकत्ता में वहाँ के श्रीमन्त बड़े-बड़े लोगों और प्रसिद्ध पण्डितों ने एकत्र होकर यह सभा दयानन्द सरस्वती जी की कार्यवाहियों पर विचार करने के उद्देश्य से आयोजित की थी। इस सभा का विस्तृत वृत्तान्त हम ‘सार सुधा निधि’ पत्रिका से नीचे अंकित करते हैं। इस सभा के व्यवस्थापक पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी कॉलेज के प्रिंसिपल थे। इस सभा में पण्डित तारानाथ तर्कवाचस्पति, जीवानन्द विद्यासागर बी.ए. और नवदीप के पण्डित भुवनचन्द्र विद्यारत्न आदि बंगाल के लगभग तीन सौ पण्डित और कानपुर के पण्डित बाँके बिहारी वाजपेयी और यमुना नारायण तिवारी और वृन्दावन के सुदर्शनाचार्य जी और तञ्जौर (मद्रास प्रेसीडैन्सी) के पण्डित राम सुब्रह्मण्यम शास्त्री जिनको सूबा शास्त्री भी कहते हैं, पधारे थे। इनके अतिरिक्त श्रीमन्त लोगों में वहाँ के सुप्रसिद्ध भूपति ऑनरेबल राजा यतीन्द्र मोहन ठाकुर सी.एस.आई., महाराज कमल कृष्ण बहादुर, राजा सुरेन्द्र मोहन ठाकुर, सी.एस.आई., राजा राजेन्द्रलाल मलिक, बाबू जयकिशन मुखोपाध्याय, कुमार देवेन्द्र मलिक, बाबू रामचन्द्र मलिक, ऑनरेबल बाबू कृष्णदास पाल, लाला नारायणदास मथुरा निवासी, राय बद्रीदास लखीम बहादुर, सेठ जुगलकिशोर जी, सेठ नाहरमल, सेठ हंसराज इत्यादि कलकत्ता निवासी सेठ उपस्थित थे। यद्यपि पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर व बाबू राजेन्द्रलाल मित्र एल.एल.डी. ये दोनों महानुभाव पधार नहीं सके थे, तथापि इन महानुभावों ने सभा की कार्यवाही को जी-जान से स्वीकार किया। जिस समय ये सब सज्जन सीनेट हॉल में एकत्र हुए, तब पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने इस सभा के आयोजन करने का विशेष प्रयोजन बता करके निनलिखित प्रश्न प्रस्तुत किये-
प्रश्न 1- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने पहला प्रश्न यह किया कि वेद का संहिता भाग जैसा प्रामाणिक है ब्राह्मण भाग भी वैसा ही प्रामाणिक है अथवा नहीं? और मनुस्मृति धर्मशास्त्र के समान अन्य स्मृतियाँ मानने योग्य हैं अथवा नहीं। पृ. 639
उत्तर– इस प्रकार बहुत-सी युक्तियों से यह बात सिद्ध होती है कि संहिता के समान ब्राह्मण भाग तथा मनुस्मृति के समान विष्णु याज्ञवल्क्य आदि समस्त स्मृतियाँ मानने योग्य हैं तथा यही सब पण्डितों का सर्वसमत मत है। पृ. 641
प्रश्न 2- पण्डित महेशचन्द्र न्यायरत्न ने दूसरा प्रश्न यह किया कि शिव, विष्णु, दुर्गा आदि देवताओं की मूर्तियों की पूजा और मरणोपरान्त पितरों का श्राद्ध आदि और गंगा, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों व क्षेत्रों में स्नान तथा वास, शास्त्र के अनुसार उचित है अथवा अनुचित? पृ. 641
उत्तर– …..अतः देवताओं की मूर्ति और उनकी पूजा करना सब श्रुतियों और स्मृतियों के अनुसार उचित है। पृ. 645
….अतः यह बात सुस्पष्ट होकर निर्णीत हो गई कि मृतकों का श्राद्ध श्रुति व स्मृति दोनों के अनुसार विहित है। पृ. 646
…..अतः गंगा आदि का स्नान और कुरुक्षेत्र आदि का वास श्रुति और स्मृति दोनों से सिद्ध है। पृ. 646
प्रश्न 3- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न ने तीसरा प्रश्न यह किया कि अग्निमीळे. इत्यादि मन्त्र में अग्नि शबद से परमात्मा अाि्रिेत है अथवा आग? पृ. 647
उत्तर– ….अतः इस मन्त्र में अग्नि शबद का अर्थ जलाने वाली आग ही है। पृ. 647
प्रश्न 4- पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न जी ने चौथा प्रश्न यह किया कि अग्निहोत्र इत्यादि यज्ञ करने का प्रयोजन (उद्देश्य) जल, वायु की शुद्धि है अथवा स्वर्ग की प्राप्ति? पृ. 647
उत्तर– यजुर्वेद के मन्त्रों से अग्निहोत्र आदि यज्ञ स्वर्ग साधक हैं। पृ. 647
प्रश्न 5- पं. महेशचन्द्र जी ने पाँचवाँ प्रश्न यह किया कि वेद के ब्राह्मण भाग का निरादर करने से पाप होता है अथवा नहीं? पृ. 647
उत्तर– इसका उत्तर देते हुए पं. सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने कहा कि यह तो प्रथम प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं कि ब्राह्मण भाग भी वेद ही हैं, फिर ब्राह्मण भाग का अपमान करने से मानो वेद का ही अपमान हुआ।…. पृ. 647
उसके पश्चात् पण्डितों की समति लेनी आरमभ हुई। निनलिखित पण्डितों ने सर्वसमति से हस्ताक्षर कर दिये। पृ. 648
इन प्रश्नों में दूसरा प्रश्न मूर्तिपूजा से सबन्धित है। इसमें सुब्रह्मण्यम शास्त्री ने मूर्ति पूजा के समर्थन में ऋग्वेद के मन्त्र का उल्लेख करके बताया- शिवलिङ्ग की पूर्ति की पूजा स्थापना आदि से पूजन का फल होता है, मन्त्र है-
तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम्।।
-ऋग्वेद 5/3/3
उसके अतिरिक्त रामतापनी, बृहज्जाबाल उपनिषद् में शिवलिंग की पूजा करना लिखा है। मनुस्मृति में लिखा है-
नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।
देवतायर्चनं चैव, समिदाधानमेव च।।
-मनु. 2/176
इसके अतिरिक्त देवल स्मृति, ऋग्वेद गृह्य परिशिष्ट बौधायन सूत्र आदि के प्रमाण दिये हैं।
इन प्रमाणों के उत्तर में लेखक ने स्वामी दयानन्द का जो पक्ष रखा है, उसका मुखय आधार है- वेद स्वतः प्रमाण हैं और शेष ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं, अतः उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध नहीं है। फिर भी जिन प्रमाणों को दिया गया है, वह प्रसंग मूर्ति पूजा पर घटित नहीं होता। स्वामी दयानन्द ने सामवेद के ब्राह्मण के पाँचवें अनुवाक के दसवें खण्ड में स्पष्ट लिखा है- सपरन्दिव0 आदि यहाँ देवताओं की मूर्ति का प्रसंग ब्रह्म लोक का है। पृ. 643
मूर्तिपूजा के पक्ष में प्रमाण देते हुए मनु को उद्धृत किया है और कहा गया है- दो ग्रामों के मध्य मन्दिरों का निर्माण करना चाहिए तथा उसमें प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए-
सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च।
– 8/248
संक्रमध्वजयष्टीनां प्रतीमानां च भेदकः।
प्रतिकुर्याच्च तत् सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च।।
– 9/285
मूर्तिपूजा के समर्थन में दिये गये तर्कों पर लेखक ने स्वामी दयानन्द का पक्ष निमन प्रकार से उपस्थित किया है-
स्वामी दयानन्द जिन शास्त्रों का प्रमाण मूर्तिपूजा के खण्डन में देते हैं, मूर्तिपूजा का समर्थन करने वालों को उन्हीं शास्त्रों से मूर्तिपूजा के समर्थन के प्रमाण देने चाहिए जो नहीं दिये गये।
ऋग्वेद के जिस मन्त्र का अर्थ शिवलिंग की स्थापना किया है, वह मर्जयन्त शबद मृज धातु से बना है जिसका अर्थ शुद्ध करना, पवित्र करना, सजाना, शबद करना है, अतः इसका अर्थ पूजा करना कभी नहीं है, अपितु परमेश्वर की स्तुति करना है।
जो गाँव की सीमा में देवताओं के मन्दिर बनाने का विधान है, इसी प्रसंग में सीमा पर तालाब, कूप, बावड़ी आदि के वाचक शबदों का प्रयोग किया गया है, अतः मन्दिर की बात नहीं है। उत्तर काल में इन स्थानों पर मन्दिर बनने लगे, वह शास्त्र विरुद्ध परमपरा है।
अन्त में मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है, इसको बताने के लिए वेद मन्त्रों के प्रमाण दिये गये हैं।
मूर्तिपूजा के निषेध में प्रमाण– अतः उपर्युक्त युक्तियों से यह तो भली-भाँति निश्चित हो गया कि मूर्ति-पूजा उचित नहीं और अब उसके खण्डन में वेदों तथा उपनिषदों के कुछ प्रमाण देकर इस विषय को समाप्त करते हैं-
‘‘न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।’’
अर्थ–उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं, उसका नाम अत्यन्त तेजस्वी है।
स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
अर्थ–वह परमात्मा सर्वव्यापक, सर्वद्रष्टा, सर्वशक्तिमान्, शरीररहित, पूर्ण, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, शुद्ध है तथा पापों से पृथक् है।
अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सभूत्यां रताः।।
अर्थ –जो लोग प्रकृति आदि जड़-पदार्थों की पूजा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जो उत्पन्न की हुई वस्तुओं की पूजा करते हैं वे इससे भी अधिक अन्धकारमय नरक में जाते हैं।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।
जो बुद्धिमान् उसे आत्मा में स्थित देाते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख प्राप्त होता है, औरों को नहीं।
ततो तदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्।
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापि यान्ति।।
जो सृष्टि व सृष्टि के उपादान कारण से उत्कृष्ट है, वह निराकार व दोषरहित है। जो उसको जानते हैं, उनको अमर जीवन प्राप्त होता है और दूसरे लोग केवल दुःख में फँसे रहते हैं।
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।
अर्थ–उसी के ज्ञान से मृत्यु के पंजे से छुटकारा होता है और कोई मार्ग ध्येय धाम का नहीं है।
किसी देवता की उपासना भी उचित नहीं है। शतपथ ब्राह्मण में जहाँ तैंतीस देवताओं की व्याखया की है (और उन्हीं तैंतीस के आज तैंतीस करोड़ बन गये हैं और उस सूची के पूरा होने के पश्चात् जो उसमें और गुगा पीर जैसे समय-समय पर सममिलित होते रहे हैं, वे इनसे अतिरिक्त हैं) वहाँ भी परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य की पूजा विहित नहीं रखी, प्रत्युत उसका खण्डन किया है।
आत्मेत्येवोपासीत। स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात्प्रियं रोत्स्यतीश्वरो ह तथैव स्यात्।
योऽन्यां देवतामुपास्ते न स वेद।
तथा पशुरेव स देवानाम्।
परमेश्वर जो सबका आत्मा है, उसकी उपासना करनी चाहिये। जो परमेश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य को प्यारा अर्थात् उपास्य समझता है, उसे जो कहे कि तू प्रिय के विरह में दुःख में पड़ेगा, वह सत्य पर है। जो और देवता की उपासना करता है, वह वास्तविकता को नहीं जानता। वह निश्चित रूप से बुद्धिमानों में पशु सदृश है।
(दयानन्द ग्रन्थमाला, पृ. 665)
टिप्पणियाँ
- द्वा सुपर्णा., पृ. 277 मुण्डक उपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली, संस्करण-2006
- अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्त सञ्ज्ञके।।
– गीता, अध्याय 8, श्लोक 18, गीता प्रेस
- पृ. 112, प्रश्नोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण-2000, प्रकाशक-विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
- न तस्य प्रतिमा अस्ति। -यजु. 32 मन्त्र-3, परोपकारिणी सभा, अजमेर, पृ.
- यज् वेदपूजा संगतिकरण दानेषु। -धातु पाठ, पाणिनी मुनि
- वातो देवता चन्द्रमा देवता।-प्रतिमा पूजन विचार, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1,परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
- मातृदेवो भव, पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकदशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
- यजु. 40/9, सत्यार्थप्रकाश, पृ. 370, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
- पृ. 813, उपदेश मञ्जरी, दयानन्द ग्रन्थमाला, भाग 2, प्रकाशक- परोपकारिणी साा, अजमेर, संस्करण-2012
- पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा, संस्करण-2012
- पृ. 373, दयानन्द ग्रन्थमाला भाग 1, दयानन्द ग्रन्थमाला, प्रकाशक- परोपकारिणी सभा अजमेर, संस्करण-2012
- अन्धन्तमः प्रविशन्ति। -यजु. 40/9
- केन उपनिषद्। पृ. 230, तैत्तिरीयोपनिषद्, एकादशोपनिषद्, सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, संस्करण 2000, प्रकाशक- विजयकृष्ण लखनपाल, दिल्ली
– डॉ. धर्मवीर
बेबाक़ और सारगर्भित विवेचना ,साधुवाद
मेरे अंत:करण की आवाज़ है यह विचारमाला
Bhot acha lekh me bhi murti puja ke khilaf thi pr reasons nhi the pr ab hai …..
धन्यवाद्