मुझे यही अच्छा लगता है
पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी शास्त्रार्थ-महारथी एक बार लेखरामनगर (कादियाँ) पधारे। उन पर उन दिनों अर्थ-संकट बहुत था। वहाँ एक डॉज़्टर जगन्नाथजी ने उनका टूटा हुआ जूता देखकर
आर्यसमाज के मन्त्री श्री रोशनलालजी से कहा कि पण्डितजी का जूता बहुत टूटा हुआ है। यह अच्छा नहीं लगता। मुझसे पण्डितजी लेंगे नहीं। आप उन्हें आग्रह करें। मैं उन्हें एक अच्छा जूता लेकर देना चाहता हूँ।
श्री रोशनलालजी ने पूज्य पंडितजी से यह विनती की। त्यागमूर्ति पण्डितजी का उज़र था वे डॉज़्टर हैं। उनकी बात और है। मुझे तो यही जूता अच्छा लगता है। मुझे पता है कि सभा से प्राप्त होनेवाली मासिक दक्षिणा से इस मास घर में किस का जूता लेना है, किसके वस्त्र बनाने हैं और किसकी फ़ीस देनी है। जब मेरे नया जूता लेने की बारी आएगी, मैं ले लूँगा।
ऐसे तपस्वियों ने, ऐसे पूज्य पुरुषों ने, ऐसे लगनशील साधकों और सादगी की मूर्ज़ियों ने समाज का गौरव बढ़ाया इनके कारण युग बदला है। इन्होंने नवजागरण का शंख घर-घर, गली-गली,
द्वार-द्वार पर जाकर बजाया है। समाज इनका सदा ऋणी रहेगा॥