मित्र और वरुण :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

जैसे बहुत स्थलों में ब्रह्म और क्षत्र शब्द साथ आते हैं तद्वत् मित्र और वरुण शब्द भी पचासों मन्त्रों में साथ-साथ प्रयुक्त हुए हैं । कहीं असमस्त और कहीं समस्त । समस्त होने पर मित्रावरुण ऐसा रूप बन जाता है। मित्र और वरुण के दो-एक उदाहरण मात्र से आपको ज्ञात हो जाएगा कि यह ब्रह्मक्षत्र का वर्णन है; यथा-

मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिसादसम् ।

धियं घृताचीं साधन्ता ऋ० । १ । २।६ ॥

पूतदक्ष = पवित्र बल, जिसका बल परम पवित्र है । रिसादस रिस+अदम् । रिस – हिंसक पुरुष । अदम् = भक्षक । हिंसकों का भी भक्षक । धी – कर्म, ज्ञान । घृताचीं घृतवत्, शुद्ध घृतवत् पुष्टिकारक आदि । अथ मन्त्रार्थ – (पूतदक्षं+मित्रम्+ रिसादसम्+ वरुणञ्च + हुवे ) पवित्र बल धारी मित्र और दुष्ट हिंसकों के विनाशक वरुण को बुलाता हूँ जो दोनों (घृताचीं + धियं+साधन्ता) घृतवत् पवित्र ज्ञान को फैला रहे हैं । घृतवत् विचाररूप दूध से उत्पन्न ज्ञान घृताची है |

मित्र और वरुण के सम्बन्ध में राजा सम्राट् आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं; यथा-

महान्ता मित्रावरुणा सम्राजा देवावसुरा ।

ऋतावाना वृतमा घोषतो बृहत् ॥ ४ ॥ ऋतावाना नि षेदतुः साम्राज्याय सुक्रतू ।

घृतव्रता क्षत्रिया क्षत्रमाशतुः ॥ ८ ॥

ऋ०।८।२५

(मित्रावरुणा + महान्ता) ये मित्र और वरुण महान् हैं, (सम्राजा) सम्राट् हैं, (देवौ + असुरा) देदीप्यमान और असुर – निखिल अज्ञान के निवारक हैं, (ऋतावानौ ) सत्यवान् हैं और (वृहत् + ऋतम् + आघोषतः ) महान् सत्य की ही घोषणा करते हैं ॥ ४ ॥ (ऋतावानौ + सुक्रतू ) स्वयं सत्य नियम में बद्ध और सदा शोभन कर्म में परायण मित्र और वरुण

 ( साम्राज्याय + निषेदतुः ) साम्राज्य सम्बन्धी विचार के लिए बैठते हैं । पुनः वे कैसे हैं (घृतव्रता) सत्यादि व्रतधारी पुनः (क्षत्रिया) परमबलिष्ठ और ( क्षत्रम् + आशतुः ) जो परमबल का अधिष्ठता है ॥ ८ ॥ पुनः केवल वरुण के विषय में वर्णन आता है ।।

नि षसाद घृतव्रतो वरुणः पस्त्यास्वा । साम्राज्याय सुक्रतुः ॥ १० ॥ परिस्पशो निषेदिरे ।। – ऋ० १ । २५ /१३

(पस्त्यासु) पस्त्या प्रजा । प्रजाओं के मध्य ( साम्राज्याय) राज्य नियम स्थापित करने के लिए वह वरुण व्रतधारी हो बैठता है । इसके चारों तरफ दूतगण बैठते हैं ।।

यहाँ देखते हैं कि धर्म के नियमों को बनाने हारे व्यवस्थापकों को जिस-जिस योग्यता की आवश्यकता है उस उस का यहाँ निरूपण है । प्रथम सत्य की बड़ी आवश्यकता है, अतः मित्र और वरुण के विशेषण में जितने ऋत वा सत्यवाचक शब्द प्रयुक्त हुए हैं उतने अन्य इन्द्रादिकों के लिए नहीं । पुनः अपने व्रत में दृढ़ होना चाहिए। अतः घृतव्रत शब्द के प्रयोग भी भूयोभूयः आता है । पुनः व्यवस्थापकों को अध्यात्म बल भी अधिक चाहिए, अतः क्षत्रिय शब्द आता है । इस प्रकार ज्यों-ज्यों विचारते हैं त्यों-त्यों यही प्रतीत होता है कि मित्र और वरुण नाम ब्रह्म क्षेत्र का है। इसी ब्रह्म क्षेत्र का पुत्र वसिष्ठ है । पुनः वेदों को देख मीमांसा कीजिए, भ्रम में मत पड़िये । वसिष्ठ कोई व्याक्ति विशेष नहीं किन्तु सत्यार्थ का ही नाम वसिष्ठ है । सत्य नियम ही क्षत्रियों का भी शासक है ।

एक बात और यहाँ दिखाने के लिए परम आवश्यक है कि धर्म ही क्षत्र का भी क्षत्र है अर्थात् परम उद्दण्ड राजाओं को वश में करने हारा केवल धर्मनियम है । वह यह है-

स नैव व्यभवत्तच्छ्रेयोरूयमत्यसृजत धर्मं तदेतत् क्षत्त्रस्य क्षत्रं यद्धर्मस्तस्माद्धर्मात्परं नास्त्यथो अबलीयान् बलीयांसमाशसते धर्मेण यथा राज्ञैवं यो वै स धर्मः सत्यं वै तत्तस्मात् सत्यं वदन्तमाहुर्धर्मं वदतीति धर्मं वा वदन्तं सत्यं वदतीत्येतद्धैववैतदुभयं भवति ॥

– वृ० उ०११ ४ । १४ ।। आशय-वृहदारण्यकोपनिषद् में यह वर्णन आता है कि जब ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणवर्ग, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को बना चुके तो भी देश

की वृद्धि नहीं हुई है । तब अत्यंत कल्याण स्वरूप जो धर्म है उसको सबसे बढ़िया बनाया । क्षत्र का भी शासक वही धर्म हुआ, अतः धर्म से परे कोई पदार्थ नहीं। जैसे राज्य की सहायता से वैसे ही धर्म की सहायता से एक महादुर्बल पुरुष भी परम बलिष्ठ पुरुष का साम्मुख्य करता है । वह धर्म सत्य ही है । अतः सत्य बोलने वाले को देखकर लोक कहते हैं कि यह धर्म कह रहा है। इसी प्रकार धर्म के व्याख्याता को सत्यवादी कहते हैं ।

यहाँ पर यह वर्णन आता है कि क्षत्रियों के भी शासक धर्म नियम हैं । इन नियमों में बद्ध होकर यदि कोई क्षत्रिय अन्याय करे तो प्रजाएँ उसको तत्काल रोक देती हैं। अब आप समझ सकते हैं कि वसिष्ठ के अधीन समस्त राजवंश कैसे हुए । निःसन्देह ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्गों से निर्धारित जो धर्म व्यवस्था है, उसका पालन यदि कोई न करे तो कब उसे कल्याण है, अतः सर्वराजाओं ने वसिष्ठ नामधारी धर्मनियम को ही अपना पुरोहित बनाया ||

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *