बात अंग्रेजों के शासनकाल की है। डॉ0 अम्बेडकरजी (1891-1956) दलितों के नेता के रूप में उभर चुके थे। दलितों के पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की भी उन्होंने माँग की थी। इस माँग के विरोध में 20 सितम्बर, 1932 को महात्मा गान्धीजी ने आमरण अनशन किया था। अनशन विषयक इस प्रसंग का विश्लेषण करते हुए पं0 गंगाप्रसादजी उपाध्याय ने लिखा था कि-‘ डॉ0 अम्बेडकरजी को प्रथम शरण तो आर्यसमाज में ही मिली थी। (जीवन चक्र प्रकाशक-कला प्रेस इलाहाबाद, संस्करण-1954)। पर उपाध्यायजी ने वहाँ उन घटना-प्रसंगों या काल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस जिज्ञासा की तृप्ति हो कि ’बाबासाहब अम्बेडकर जीवन में पहली बार कब और कैसे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये ?‘
लगभग पन्द्रह साल तक डॉ0 अम्बेडकर के सम्पर्क में रहने वाले श्री चांगदेव भवानराव खैरमोडे ने सन् 1952 में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का चरित्र लिखा था। उस चरित्र का अध्ययन करते समय पता चला कि सर्वप्रथम सन् 1913 में बड़ोदरा निवास-काल में डॉ0 अम्बेडकर आर्य विद्वान पं0 आत्मारामजी अमृतसरी और आर्यसमाज बड़ोदरा के सम्पर्क में आये थे।
पं0 आत्मारामजी (1866-1938) मूलतः अमृतसर के निवासी थे। आर्य विद्वान् पं0 गुरुदत्तजी विद्यार्थी की प्रेरणा से उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी न करने का संकल्प किया था। सन् 1811 में उन्होंने दयानन्द हाईस्कूल लाहौर में अध्यापन किया और उसी समय वे पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा, लाहौर के उपमन्त्री (1894) भी बने। सन् 1897 में हुतात्मा पं0 लेखरामजी का बलिदान हो जाने के पश्चात् पं0 आत्मारामजी ने उनके द्वारा पूरे भारवर्ष में घूमकर संकलित की गई स्वामी दयानन्द विषयक जीवन सामग्री को सूत्रबद्ध कर एक बृहद् ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। तथाकथित शूद्रों को वैदिकधर्मी बनाकर भरी सभा में उनके कर-कमलों से उन्होंने अन्न और जल भी ग्रहण किया था। समय-समय पर उन्होंने पौराणिकों और मौलवियों से शास्त्रार्थ भी किए थे। (आर्यसमाज का इतिहास: सत्यकेतु विद्यालंकार)। बड़ोदरा राज्य की ओर से न्याय विभाग के लिए विविध भाषाओं में कोश बनाये गये थे। उसके हिन्दी विभाग की जिम्मेदारी आपको ही सौंपी गई थी। यह ग्रन्थ ’श्री सयाजी शासन कल्पतरु‘ के नाम से प्रकाशित हुआ था। (डॉ0 बाबासाहेब अम्बेडकर: डॉ0 सूर्यनारायण रणसुभे: राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली संस्करण/1992)। मौलिक और अनूदित कुल मिलाकर उन्होंने लगभग बीस ग्रन्थ लिखे थे।
जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।
बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को दलितोद्धार के कार्य में सफलता उस समय से प्राप्त हुई जब उन्होंने पं0 आत्मारामजी को अपनी रियासत के छात्रावासों का अध्यक्ष और पाठशालाओं का निरीक्षक नियुक्त किया था। बड़ोदरा रियासत में शूद्रातिशूद्रों के लिए जो सैकड़ों पाठशालाएँ स्थापित की गई थीं, उनमें लगभग बीस हजार बालक बालिकाओं ने शिक्षा ग्रहण की थी। बड़ोदरा में उन्होंने आर्य कन्या महाविद्यालय की भी स्थापना की थी।
कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज जब बड़ोदरा पधारे तो पं0 आत्मारामजी के कार्यों से बहुत ही प्रभावित हुए और उन्हें शीघ्र ही कोल्हापुर आने का निमन्त्रण दे गये। 1918 में जब पं0 आत्माराम कोल्हापुर पधारे तो शाहू महाराज ने उन्हें अपना मित्र ही नहीं, अपितु धर्मगुरु भी माना और अपनी रियासत को आर्यधर्मी बनाने के लिए उनके कर-कमलों से जनवरी 1918 में आर्यसमाज की स्थापना की। कोल्हापुर की राजाराम महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं को भी उन्होंने संचालन हेतु आर्य संस्थाओं को सौंप दिया। इस प्रकार गुजरात की बड़ोदरा और महाराष्ट्र की कोल्हापुर रियासत के माध्यम से पं0 आत्माराम जी ने सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करते हुए दलितोद्धार की दृष्टि से उल्लेखनीय भूमिका निभायी थी।