सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते । सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत्

(एवम्) इस प्रकार (सह वसेयुः) सब भाई साथ मिलकर रहें (वा) अथवा (धर्मकाम्यया) धर्म की कामना से (पृथक्) अलग-अलग रहें । (पृथक् धर्मः विवर्धते) पृथक-पृथक् रहने से धर्म का (सबके द्वारा अलग-अलग पञ्चमहायज्ञ आदि करने के कारण) विस्तार होता है (तस्मात्) इस कारण (पृथक् क्रिया धर्म्या) पृथक् रहना भी धर्मानुकूल है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *