पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्त आयसे । अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत्

उसी प्रकार अपनी स्त्री को छोड़ के परस्त्री या वेश्यागमन करे उस पापी को लोहे के पलंग को अग्नि से तपा लाल कर उस पर सुलाके जीते को बहुत पुरूषों के सम्मुख भस्म कर देवे ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

अनुशीलन – १. ३७१-३७२ श्लोक ‘प्रसंगविरोध’ के आधार पर प्रक्षेपान्तर्गत इसलिए नहीं कहला सकते क्यों कि इनमें ‘स्त्रीसंग्रहण’ से सम्बन्धित विशेष स्थितियों की विशेष दण्ड – व्यवस्था है । अपने रूपसौन्दर्य एवं उच्चता के आधार पर अपने जीवन संगी का तिरस्कार करते हुए दम्भपूर्वक जब कोई स्त्री या पुरूष परपुरूष – गमन या परस्त्रीगमन करे तो उनके लिये यह दण्डव्यवस्था है ।

२. यह दण्डव्यवस्था अत्यन्त कठोर है । वह इसलिये कि दंभी व्यक्ति अपने दंभ में आकर बलात् सभी मर्यादाओं का अतिक्रमण करता है और अपने हठ पर अडिग रहता है । ऐसे व्यक्ति व्यवस्थाओं को बड़ी लापरवाही से भंग करते हैं और अन्य सम्बद्ध व्यक्तियों का तिरस्कार करते हैं, अतः इनके लिए यह सार्वजनिक रूप से कठोर दण्डव्यवस्थाविहित की है । महर्षि दयानन्द ने इस सम्बन्ध में छठे समु० में प्रश्नोत्तर रूप में प्रकाश डाला है जो विवेचन की दृष्टि से उद्धरणीय है –

‘‘(प्रश्न) जो राजा वा राणी अथवा न्यायाधीश्ज्ञ वा उसकी स्त्री व्यभिचारादि कुकर्म करे तो उसको कौन दण्ड देवे ?

(उत्तर) सभा, अर्थात् उनको तो प्रजापुरूषों से भी अधिक दंड होना चाहिये ।

(प्रश्न) राजादि उन से दण्ड क्यों ग्रहण करेंगे ?

(उत्तर) राजा भी एक पुण्यात्मा भाग्यशाली मनुष्य है । जब उसी को दण्ड न दिया जाये और वह ग्रहण न करे तो दूसरे मनुष्य दण्ड को क्यों मानेंगे ? और जब सब प्रजा और प्रधान राज्याधिकारी और सभा धार्मिकता से दण्ड देना चाहें तो अकेला राजा क्या कर सकता है ? जो ऐसी व्यवस्था न हो तो राजा, प्रधान और सब समर्थ पुरूष अन्याय में डूबकर न्याय धर्म को डुबाके सब प्रजा का नाश कर आप भी नष्ट हो जायें, अर्थात् उस श्लोक के अर्थ का स्मरण करो कि न्याययुक्त दण्ड ही का नाम राजा और धर्म है जो उसका लोप करता है उससे नीच पुरूष दूसरा कौन होगा ?

(प्रश्न) यह कड़ा दण्ड होना उचित नहीं, क्यों कि मनुष्य किसी अंग का बनाने हारा वा जिलाने वाला नहीं है, ऐसा दण्ड नहीं देना चाहिए ।

(उत्तर) जो इसको कड़ा दण्ड जानते हैं वे राजनीति को नहीं समझते, क्यों कि एक पुरूष को इस प्रकार दण्ड होने से सब लोग बुरे काम करने से अलग रहेंगे और बुरे काम को छोड़कर धर्ममार्ग में स्थित रहेंगे । सच पूछो तो यही है कि एक राई भर भी यह दण्ड सब के भाग में न आवेगा । और जो सुगम दण्ड दिया जाये तो दुष्ट काम बहुत बढ़कर होने लगे । वह जिसको तुम सुगम दण्ड कहते हो वह क्रोड़ों गुणा अधिक होने से क्रोड़ों गुणा कठिन होता है क्यों कि जब बहुत मनुष्य दुष्ट कर्म करेंगे तब थोड़ा – थोड़ा दण्ड भी देना पड़ेगा अर्थात् जैसे एक को मनभर दण्ड हुआ और दूसरे को पाव भर तो पाव भर अधिक एक मन दंड होता है तो प्रत्येक मनुष्य के भाग में आधपाव बीससर दंड पड़ा, तो ऐसे सुगम दंड को दुष्ट लोग क्या समझते हैं ? जैसे एक को मन और सहस्त्र मनुष्यों को पाव – पाव दंड हुआ तो ६ । सवा छः मन मनुष्य जाति पर दंड होने से अधिक और यही कड़ा तथा वह एक मन दंड न्यून और सुगम होता है ।’’

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