वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् । वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत्

. जो सब ऐश्वर्यों के देने और सुखों की वर्षा करने वाला धर्म है उसका लोप करता है उसी को विद्वान् लोग वृषल अर्थात् शूद्र और नीच जानते हैं इसलिए, किसी मनुष्य को धर्म का लोप करना उचित नहीं ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

‘‘जो सुख की वृद्धि करने हारा, सब ऐश्वर्यों का दाता धर्म है, उसका जो लोप करता है, उसको विद्वान् लोग वृषल अर्थात् नीच समझते हैं ।’’

(स० वि० गृहाश्रम प्र०)

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