व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टं उच्यते । व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः

. ‘‘इसमें यह निश्चय है कि दुष्ट व्यसन में फंसने से मर जाना अच्छा है क्यों कि जो दुष्टाचारी पुरूष हैं वह अधिक जियेगा तो अधिक – अधिक पाप करके नीच – नीच गति अर्थात् अधिक – अधिक दुःख को प्राप्त होता जायेगा और जो किसी व्यसन में नहीं फंसा वह मर भी जायेगा तो भी सुख को प्राप्त होता जायेगा । इसलिये विशेष राजा को और सब मनुष्यों को उचित है कि कभी मृगया और मद्यपान आदि दुष्टकामों में न फंसे और दुष्ट व्यसनों से पृथक् होकर धर्मयुक्त, गुण – कर्म – स्वभावों में सदा वर्तके अच्छे – अच्छे काम किया करे ।’’

(स० प्र० षष्ठ समु०)

व्यसन और मृत्यु में व्यसन को ही अधिक कष्टदायक कहा गया है, क्यों कि व्यसन में फंसा रहने वाला व्यक्ति दिन प्रतिदिन दुर्गुणों और कष्टों में गिरता ही जाता है या अवनति को ही प्राप्त होता जाता है, किन्तु व्यसन से रहित व्यक्ति मरकर भी स्वर्गसुख को प्राप्त करता है अर्थात् उसे परजन्म में सुख मिलता है ।

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