दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः । सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात् ।

. बिना दण्ड के सब वर्ण दूषित और सब मर्यादाएं छिन्न – भिन्न हो जायें दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का प्रकोप हो जावे ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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