हिरण्यभूमिसंप्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते । यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशं अप्यायतिक्षमम् ।

राजा सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसा नहीं बढ़ता कि जैसे निश्चल प्रेम युक्त भविष्यत् की बातों को सोचने और कार्य – सिद्ध करने वाले समर्थ मित्र अथवा दुर्बल मित्र को भी प्राप्त होके बढ़ता है ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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