पार्ष्णिग्राहं च संप्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले । मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलं अवाप्नुयात् ।

अपने राज्य में ‘पार्ष्णिग्राह’ संज्ञक राजा का (१५६) तथा ‘आक्रन्द’ संज्ञक राजा का (१५६) ध्यान रखके मित्र अर्थात् पराजित शत्रु से युद्धयात्रा का फल प्राप्त करे । अभिप्राय यह है कि अपने पड़ोसी राजाओं से सुरक्षा के लिये या उनको वश में करने के लिए कौन से फल की अधिक उपयोगिता होगी, यह सोचकर शत्रु या मित्र से वही – वही फल मुख्यता से प्राप्त करे ।

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