नास्य छिद्रं परो विद्याद्विद्याच्छिद्रं परस्य च । गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरं आत्मनः ।

कोई शत्रु अपने छिद्र अर्थात् निर्बलता को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रखे ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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