अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः । शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः

शरीर के सुख के लिए अतिप्रयत्न न करे, किन्तु ब्रह्मचारी अर्थात् अपनी स्त्री साथ हो तथापि उससे विषय चेष्टा कुछ न करे भूमि में सोवे अपने आश्रित वा स्वकीय पदार्थों में ममता न करे वृक्ष के मूल में बसे ।

(स० प्र० पंच्चम समु०)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *