वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्गूला वाग्विनिःसृताः । तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः

जिस वाणी में सब व्यवहार निश्चित हैं वाणी ही जिनका मूल और जिस वाणी ही से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं जो मनुष्य उस वाणी को चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है वह जानो सब चोरी आदि पाप ही को करता है, इसलिए मिथ्याभाषण को छोड़ने सदा सत्यभाषण ही किया करे ।

‘‘परन्तु यह भी ध्यान में रखे कि जिस वाणी में अर्थ अर्थात् व्यवहार निश्चित होते हैं, वह वाणी ही उन का मूल और वाणी ही से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं, उस वाणी को जो चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है, वह सब चोरी आदि पापों का करने वाला है ।’’

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

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