महर्षिपितृदेवानां गत्वानृण्यं यथाविधि । पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थ्यं आश्रितः ।

योग्य पुत्र में गृह – कार्यो का समर्पण

उक्त विधि के अनुसार व्यक्ति (ब्रह्मचर्य – पालन एवं अध्ययन – अध्यापन से) ऋषि – ऋण को, (माता – पिता आदि बुजुर्गों की सेवा एवं सन्तानोत्पत्ति से) पितृ – ऋण को (यज्ञों के अनुष्ठान से) देवऋण को चुकाकर घर की सारी जिम्मेदारी पुत्र को सौंपकर (तत्पश्चात् वान प्रस्थ लेने से पूर्व जब तक घर में रहे तब तक) उदासीन भाव के आश्रित होकर अर्थात् सांसारिक मोह माया के प्रति विरक्त भाव रखते हुए घर में निवास करे ।

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