स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गं अक्षयं इच्छता । सुखं चेहेच्छतात्यन्तं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः

हे स्त्री – पुरूषो! जो तुम अक्षय मुक्ति – सुख और इस संसार के सुख की इच्छा रखते हो तो जो दुर्बलेन्द्रिय और निर्बुद्धि पुरूषों के धारण करने योग्य नहीं है उस गृहाश्रम को नित्य प्रयत्न से धारण करो ।

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

‘‘इसलिए जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे ।’’

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

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