ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणाः सौम्यदर्शनाः । अनुद्वेगकरा नॄणां सत्वचोऽनग्निदूषिताः ।

ते तु सर्वे वे सब दण्ड ऋजवः सीधे अव्रणाः बिना गाँठ वाले सौम्यदर्शनाः देखने में प्रिय लगने वाले नृणां अनुद्वेगकराः मनुष्यों को बुरे या डरावने न लगने वाले सत्वचः छालसहित और अनग्निदूषिताः बिना जले – झुलसे स्युः होने चाहिये ।

२० से २२ तक के श्लोकों का भाव –

‘‘ब्राह्मण के बालक को खड़ा रख के भूमि से ललाट के केशों तक पलाश वा बिल्ववृक्ष का, क्षत्रिय को वट वा खदिर का ललाट भू्र तक, वैश्य को पीलू वा गूलर वृक्ष का नासिका के अग्रभाग तक दंड प्रमाण और वे दंड चिकने, सूधे हों, अग्नि में जले, टेढ़े कीड़ों के खाये हुये नहीं हों ।’’

(सं० वि० वेदा० सं०)

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