ब्राह्मण के लिए अपमान – सहन का निर्देश एवं उसका फल
(ब्राह्मणः) ब्राह्मण विषात् इव विष के समान सम्मानात् उत्तम मान से नित्यम् उद्विजेत् नित्य उदासीनता रखे च और अमृतस्य एव अमृत के समान अवमानस्य सर्वदा आकांक्षेत् अपमान की आकांक्षा सर्वदा करे अर्थात् ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के लिए भिक्षा मात्र मांगते भी कभी मान की इच्छा न करे ।
(सं० वि० वेदारम्भ सं०)
‘‘संन्यासी जगत् के सम्मान से विष के तुल्य डरता रहे और अमृत के समान अपमान की चाहना करता रहे । क्यों कि जो अपमान से डरता और मान की इच्छा करता है, वह प्रशंसक होकर मिथ्यावादी और पतित हो जाता है । इसलिए चाहे निन्दा, चाहे प्रशंसा, चाहे मन, चाहे अपमान, चाहे जीना, चाहे मृत्यु, चाहे हानि, चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे, चाहे कोई वैर बाँधे, चाहे अन्न, पान, वस्त्र, उत्तम स्थान मिले वा न मिले; चाहे शीत – उष्ण कितना ही क्यों न हो इत्यादि सबका सहन करे और अधर्म का खण्डन तथा धर्म का मण्डन सदा करता रहे । इससे परे उत्तम धर्म दूसरे किसी को न माने ।’’
(सं० वि० संन्यासाश्रम)
‘‘वही ब्राह्मण समग्र वेद और परमेश्वर को जानता है जो प्रतिष्ठा से विष के तुल्य सदा डरता है और अपमान की इच्छा अमृत के समान किया करता है ।’’
(सं० प्र० तृतीय समु०)