वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं इन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ।

वेदों का अभ्यास(12/94-103), तप=व्रतसाधना(12/104), ज्ञान=सत्यविद्याओं की प्राप्ति (12/104), इन्द्रियसंयम (12/92), धर्मक्रिया=धर्मपालन एवं यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान और आत्मचिन्त=परमात्मा का ज्ञान एवं ध्यान, ये छः मोक्ष-प्रदान करने वाले सर्वोत्तम कर्म है ।

 

अनुशीलन- उपलब्ध संस्करणों में इस श्लोक के तृतीय पाद में अहिंसा गुरुसेवा च पाठ मिलता है । यह पाठभेद किया गया है जो मनुस्मृति के अनुरूप नही है । यहां धर्मक्रियाsत्मचिन्ता च पाठ ही उपयुक्त है । इसकी पुष्टि में निम्न प्रमाण है—

  • 83 वें श्लोक में निःश्रेयस कर्मों की परिगणना है, परिगणना के बाद छह कर्मों से सम्बन्धित व्याख्यान 85-115 श्लोकों में है । इस व्याख्यान में अहिंसा और गुरुसेवा का कही उल्लेख नही है अपितु आत्मज्ञान और धर्म क्रिया का है । श्लोकार्थ में ततत् वर्णन वाले श्लोकों की संख्या दे दी है ।

(2) मनु ने सात्विक कर्मों को ही निःश्रेयसकर्म माना है । इस श्लोक में अन्य सभी कर्म तो वही है, केवल दो में पाठभेद कर दिया है । सात्विक कर्मों का वर्णन है 12/31 में है । वही पाठ यहां ग्रहण करना मनुसम्मत है क्योंकि वही कर्म मनु-मत से सर्वश्रेष्ठ है और वही मुक्तिदायक हो सकते है । अतः प्रस्तुत पाठ सही है ।

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