यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम् । तस्मिंस्तावत्तपः कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं भवेत् ।

जिस कर्म के करने पर मनुष्य के मन में जितना भारीपन अर्थात् असन्तोष एवं अप्रसन्नता होवे उस कर्म में जितना तप करने से मन में सुप्रसन्नता एवं संतुष्टि हो जावे उतना ही तप करे, अर्थात् किसी पाप के करने पर मनुष्य के मन में जब तक ग्लानिरहित पर्ण संतुष्टि एवं प्रसन्नता न हो जाए तब तक स्वेच्छा से तप करता रहे ।

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