प्रसुप्तः सः वह प्रलय – अवस्था में सोया हुआ – सा (१।५२-५७) परमात्मा तस्य अहर्निशस्य अन्ते उस (१।६८-७२) दिन – रात के बाद (प्रति बुध्यते) जागता है – सृष्टयु त्पत्ति में प्रवृत्त होता है (च) और प्रतिबुद्धः जागकर (सद् – असद् – आत्मकम्) जो कारणरूप में विद्यमान रहे और जो विकारी अंश से कार्यरूप में अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले (मनः) ‘महत्’ नामक प्रकृति के आद्यकार्यतत्त्व की सृजति सृष्टि करता है ।