मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया । आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः

सिसृक्षया सृष्टि को रचने की इच्छा से फिर वह परमात्मा मनः सृष्टिं विकुरूते महत्तत्त्व की सृष्टि को विकारी भाव में लाता है – अहंकार के रूप में विकृत करता है तस्मात् उस विकारी अंश से चोद्यमानं आकाशं जायते प्रेरित हुआ – हुआ ‘आकाश’ उत्पन्न होता है तस्य उस आकाश का गुणं शब्दं विदुः गुण ‘शब्द’ को मानते हैं ।

आकाशोत्पत्ति के विषय में महर्षिदयानन्द लिखते हैं –

‘‘उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा है, उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पनन सा होता है । वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती । क्यों कि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें ?’’

(स० प्र० अष्टमसमु०)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *