विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यं अद्वेषरागिभिः । हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत ।

(अद्वेषरागिभिः सद्भिः विद्वद्भिः नित्यं सेवितः )जिसका सेवन रागद्वेष – रहित श्रेष्ठ विद्वान् लोग नित्य करें यो हृदयेन अभ्यनुज्ञातः धर्मः जिसको हृदय अर्थात् आत्मा से सत्य कत्र्तव्य जाने वही धर्म माननीय और करणीय है । तं निबोधत उसे सुनो ।

(स० प्र० दशम समु०)

‘‘जिसको सत्पुरूष रागद्वेषरहित विद्वान् अपने हृदय से अनुकूल जानकर सेवन करते हैं , उसी पूर्वोक्त को तुम लोग धर्म जानो ।’’ (सं० वि० गृहा० प्र०)

सकामता – अकामता विवेचन –

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