मनुस्मृति में स्त्रियों के शैक्षिक एवं धार्मिक अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अपनी स्मृति में वेद को परम प्रमाण मानने वाले महर्षि मनु का मन्तव्य वेदोक्त ही है। विश्व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में यिों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान ी को साथ लिए बिना सपन्न नहीं होता। यही मनु की मान्यता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक गृह-आयोजन और धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व ी को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है। वैदिक -काल में यिों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे। वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं। उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्ट्री ऋषिकाएं बनती थीं। वेदों को धर्म में परम-प्रमाण मानने वाले महर्षि मनु वेदानुसार यिों के सभी धार्मिक तथा उच्च शिक्षा के अधिकारों के समर्थक थे। तभी उन्होंने यिों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करना और धर्मकार्यों का अनुष्ठान यिों के अधीन रखना, घोषित किया है। प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ) वेदों में स्त्रियों के धार्मिक अधिकार

वेदों के मन्त्रों पर लगभग 26 महिलाओं के नाम का उल्लेा ऋषिका के रूप में मिलता है जो इस तथ्य की जानकारी देता है कि अपनी विद्वत्ता से उन ऋषिकाओं ने उन-उन मन्त्रों का भाष्य अथवा प्रवचन किया था, अतः उनका नाम वहां उल्लिखित है। वे हैं-

घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू) अगस्त्यभगिनी, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा, नदी, यमी, शाश्वती, श्री, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्रि, सूर्या, सावित्री, अदिति (बृहद्देवता 2.82-84)। इनके अतिरिक्त ब्राह्मणग्रन्थों, उपनिषदों और महाभारत में दर्जनों वेदविदुषियों का वर्णन है। वेद तो स्पष्ट आदेश देता है –

‘‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’’ (अथर्ववेद 3.5.18)

    अर्थात्-‘कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक वेद-शास्त्रों का अध्ययन कर, विदुषी बनकर अपने सदृश पति का वरण करती है, अर्थात् करे।’ वह परिवार फिर विद्वानों का, सुशिक्षितों का परिवार बनता है। फिर उस परिवार में शिक्षित, सय, उन्नत सन्तान होती है।

(आ) मनुस्मृति में स्त्रियों के धार्मिक अधिकार

मनु भी वैदिक परपरा के प्रवर्तक एवं संवाहक हैं। वैदिक परपरा के अनुसार, मनु ने भी स्त्रियों को धर्मानुष्ठान का अधिकार सौंपा है। घर में आयोजित होने वाले सभी धर्मानुष्ठानों का मुय दायित्व पत्नी को ही दिया है। स्पष्ट है कि उन दायित्वों को विदुषी पत्नी ही सपन्न कर सकती है, अशिक्षित पत्नी नहीं। अतः नारियों का शैक्षिक एवं धार्मिक अधिकार स्वतः सिद्ध है। मनु का विधान है-

(क) ‘‘अपत्यं धर्मकार्याणि………दाराधीनः’’ (9.28)

अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति और धर्मकार्यों का अनुष्ठान पत्नी के दायित्व के अन्तर्गत आता है। वही इन कार्यों की स्वामिनी है।’

(ख) ‘‘शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां परिणाह्यस्य वेक्षणे।’’  (9.11)

अर्थ-‘घर की सजावट-स्वच्छता, धर्मानुष्ठानों का आयोजन, भोजन-पाक, घर की संभाल-निरीक्षण, इन कार्यों को पत्नी के अधिकार में रखे।’

(ग) ‘‘तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः’’ (9.96)

अर्थ-‘वेदशास्त्रों में साधारण से साधारण कर्त्तव्य और धर्मपालन पत्नी को सहभागी बनाकर करने का आदेश दिया है। पत्नी के बिना धर्मानुष्ठान अधूरा है।’

मनु यहां वेद को प्रमाण रूप में घोषित कर रहे हैं और वेद में स्त्रियों के लिए शिक्षा व धर्म का अधिकार विहित है, अतः वेद का विधान ही मनु द्वारा स्वीकृत विधान है।

(घ) इसी प्रकार स्त्रियों की विवाहविधि बिना यज्ञानुष्ठान के सपन्न नहीं मानी जाती। यज्ञ में वेदमन्त्रोच्चारण पूर्वक भागीदारी का होना उनके यज्ञाधिकार का साधक है। दैवविवाह तो होता ही यज्ञ-क्रिया-पूर्वक है (3.28)। एक अन्य स्थान पर मनु कहते हैं कि बिना यज्ञ और वेदमन्त्र-पाठ के विवाहविधि सपन्न ही नहीं होती। उसके बिना पत्नी पर पति का ‘पतित्व’ अधिकार नहीं बनता-

मंगलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः।      

प्रयुज्यते विवाहेषु प्रदानं स्वायकारणम्॥    (5.152)

    अर्थ-‘विवाह काल में स्वस्ति-परक मन्त्रों का पाठ और वैवाहिक यज्ञ का अनुष्ठान इन स्त्रियों के मंगल के लिए ही किया जाता है। उस यज्ञ में कन्यादान करने पर ही स्त्रियों पर पति का अधिकार बनता है, अन्यथा नहीं।’

(इ) स्त्रियों की शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठान की वैदिक परपरा

(क) मनु वैदिक काल और परपरा के राजर्षि हैं। स्त्रियों के लिए शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठानों का निषेध उस काल में नहीं था। अतः स्त्रियों के शिक्षा-निषेधपरक विधान मनुस्मृति के मौलिक विधान नहीं हो सकते। ये प्रक्षेप पौराणिक काल के हैं।

स्त्रियों की शिक्षा और धार्मिक अधिकारों की परपरा महाभारत काल के भी बहुत बाद तक मिलती है। आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में ‘‘पत्युर्नो यज्ञ संयोगे’’ (4.1.33) सूत्र के द्वारा बतलाया है कि यज्ञानुष्ठान के द्वारा विवाह होने पर ही कोई स्त्री पत्नी कहलाती है। स्पष्ट है कि वह वैवाहिक यज्ञ के अनुष्ठान में भागीदारी करती है।

(ख) ब्राह्मण ग्रन्थों में बहुत ही स्पष्ट शदों में निर्देश दिया है कि गृहस्थ को पत्नी के साथ मिलकर ही यज्ञ करना चाहिए, अकेले नहीं। गृहस्थ होने के उपरान्त व्यक्ति अकेला यज्ञ करता है तो वह यज्ञ पूर्ण नहीं माना जाता –

    ‘‘अयज्ञियो वैष योऽपत्नीकः’’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.3.3.1)

अर्थ-‘पत्नी के बिना यज्ञ करने वाला गृहस्थ यज्ञ के अयोग्य है।’            ‘‘यद्वै पत्नी यज्ञे करोति तत् मिथुनम्’’

(तैत्तिरीय संहिता 6.2.1.1)

अर्थ-‘पत्नी यज्ञ में जो अनुष्ठान करती है वह दोनों के

(पति-पत्नी के) लिए है।’ इससे बढ़कर पत्नी द्वारा यज्ञ करने का स्पष्ट वर्णन क्या हो सकता है?

(ग) इसका कारण यह है कि विवाह होने के बाद पति-पत्नी एक इकाई बन जाते हैं, उन्हें कोई भी कार्य मिलकर करना चाहिए। एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। तैत्तिरीय ब्राह्मण इसलिए घोषणा करता है –

             ‘‘अर्धो वा एष आत्मनः यत्पत्नी’’  (3.3.3.5)

अर्थपत्नी पति का आधा भाग है।जैसे शरीर के आधे भाग की उपेक्षा नहीं की जाती, उसी प्रकार पत्नी की भी सर्वत्र बराबर भागीदारी होती है।

(घ) इसी आधार पर वैदिक परपरा में अकेला पति यजमानाी नहीं हो सकता। पत्नी के साथ मिलकर ही गृहस्थ यजमान की पूर्णता होती है-

   ‘‘अर्धात्मा वा एष यजमानस्य यत् पत्नी’’ (जैमिनीय ब्रा0 1.86)

अर्थपत्नी, यजमान पति का आधा भाग है। पूर्ण यजमान पति-पत्नी के संयुक्त रूप में कहाता है।इसी प्रकार पत्नी के बिना गृहस्थ का कोई भी धर्मानुष्ठान पूर्ण नहीं होता।

(ङ) यज्ञ में पत्नी का महत्त्व इतना अधिक है कि शास्त्र पत्नी को ही यज्ञ का आधा भाग घोषित करते हैं-

‘‘पूर्वार्धो वै यज्ञस्याध्वर्युः, जघनार्धः पत्नी’’ (शतपथ0 1.9.2.3)

‘‘जघनार्धो वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी’’ (शतपथ 1.3.1.12)

अर्थ-दोनों वाक्यों का एक ही भाव है कि ‘यज्ञ का पूर्व भाग पति है तो उत्तर भाग पत्नी है।’ यज्ञ न केवल पति-पत्नी का संयुक्त कर्त्तव्य है अपितु वह दोनों के ऐक्य का प्रतीक है।

(ग) इस प्रसंग में एक ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो मनुपत्नी द्वारा वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान और यज्ञ में सस्वर वेदपाठ करने का प्रमाण देता है। सातवें मनु राजर्षि मनु वैवस्वत (मनु श्रद्धादेव) एक बार अपने महल में पहुंचे तो देखते हैं कि उनकी पत्नी यज्ञानुष्ठान कर रही है और उसमें उच्च स्वर से यजुर्वेद के मन्त्रों का पाठ कर रही है। काठक ब्राह्मण इस घटना का उल्लेख इस प्रकार करता है-

‘‘तत् पत्नीं यजुर्वदन्तीं प्रत्यपद्यत। तस्याः वाग् द्यां आतिष्ठत्।’’

(3.30.1)

    अर्थात्-‘मनु जब महल में पहुंचे तो उनकी पत्नी यज्ञ में यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्च स्वर से पाठ कर रही थी। उसकी वाणी आकाश में व्याप्त हो रही थी।’

यह मनुओं की परपरा थी। जो सातवें मनु तक स्पष्ट शदों में प्राप्त है। प्रथम मनु स्वायंभुव के समय तो ऐसी वैदिक परपराएं और भी सुदृढ़ रूप में रही होंगी। ऐसी परपरा का प्रारभकर्त्ता राजर्षि मनु स्त्रियों के लिए शिक्षा तथा धार्मिक अधिकारों का निषेध विहित नहीं कर सकता, जो स्वयं वेदानुयायी हो और यज्ञप्रवर्तक हो।

(घ) बृहदारण्यक उपनिषद् में ब्रह्मविद्या की ज्ञाता गार्गी वाचक्नवी नामक विदुषी का उल्लेख है। उसने ब्रह्मविद्या के सर्वोच्च ज्ञाता ऋषि याज्ञवल्क्य से संवाद किया था (3.6.2;3.8.1)। याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी भी ब्रह्मवादिनी थी (2.4.2; 4.5.2)।

(ङ) महाभारत में गार्गी सहित एक दर्जन से अधिक विदुषियों का वर्णन आता है। उनमें सुलभा का विशेष महत्त्व है। अन्य विदुषियां थीं शिवा, सिद्धा, श्रुतावली, विदुला आदि (शान्ति 320.82; उद्योग0 109.18; शल्य0 54.6; उद्योग0 133 आदि)

(च) आचार्य पाणिनि ने विदुषियों की अनेक उपाधियों का उल्लेख अष्टाध्यायी में किया है जो यह जानकारी उपलध कराता है कि तब तक उस स्तर की विदुषियां होती थीं। मीमांसा दर्शन की काशकृत्स्नि व्याया की विशेषज्ञा महिलाओं को ‘काशकृत्स्ना’ कहा जाता था। गुरुकुलों में ‘आचार्या’ और ‘उपाध्याया’ पदवीधारी अध्यापिकाएं हुआ करती थीं (4.1.49)। वेदों की शाखा-विशेष का अध्ययन करने के अनुसार कोई ‘कठी’ तो कोई ‘बह्वृची’ कहलाती थी (4.1.63)। युद्ध विद्या में पारंगत क्षत्रिया विदुषियों का उल्लेख भी पाणिनि ने किया है। ‘शक्ति’ नामक अस्त्र में प्रवीण ‘शाक्तिकी’ और लाठी चलाने में प्रवीण स्त्री को ‘याष्टिकी’ कहा गया है। गुरुकुलों के छात्रावास में रहकर अध्ययन करनेवाली छात्राओं के निवास को ‘छात्रिशाला’ कहा जाता था (6.2.86)।

(छ) यम स्मृति में कन्याओं के उपनयन और वेदाध्ययन का उल्लेख है-

‘‘पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते।

अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा॥’’

(ज) हारीत स्मृति में विदुषी महिलाओं के ‘ब्रह्मवादिनी’ वर्ग का वर्णन आता है (21.23)। वे वेदादिशास्त्रों का गभीर अध्ययन करके ही ब्रह्मवादिनी बनती थीं।

(झ) स्त्रियों के अध्ययन की परपरा तो बहुत अर्वाचीन काल तक चली है। शंकराचार्य प्रथम (लगभग 2500 वर्ष पूर्व) के समय मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया था। राजशेखर की पत्नी अवंतीसुन्दरी प्रसिद्ध विदुषी हुई है। कर्नाटक प्रदेश की राजकुमारी बिज्जिका वैदर्भी काव्यरीति की प्रसिद्ध विदुषी मानी गयी है, जिसका ‘कौमुदी महोत्सव’ नाटक सुवियात है। पांचाली काव्यरीति की विदुषी भट्टारिका का नाम तथा लाटी काव्यरीति के लिए देवी नामक विदुषी का नाम प्रसिद्ध है।

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