अब दश्माध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। प्रथम छियासीवें से चौरानवें तक नौ श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। मीठे आदि रस से युक्त गुडादि द्रव्यों, गौ-अश्व आदि पशुओं, रंगे वस्त्रों और टसरी-रेशमी और ऊनी वस्त्रों के बेचने में क्या दोष है ? इसका कुछ कारण नहीं दीखता। श्वेत वस्त्र और वन के पशु बेचने में दोष क्यों नहीं है ? यह उसी श्लोक बनाने वाले से पूछना चाहिये। जब वन के पशु बेचने का भी निषेध किया आरण्यांश्च पशून् सर्वान्१ तो जो मनुष्य सम्बन्धी पशु हैं पशवो ये च मानुषाः२ जैसे गौ-घोड़ादि। यहां मानुष विशेषण व्यर्थ पड़ता है। यह परस्पर का विरोध भी इन श्लोकों के प्रक्षिप्त होने को प्रकट करता है। किसी वस्तु का उपार्जन अधर्म से कर सकते हैं उसका बेचना अवश्य अधर्म का उत्पादक होगा, उस वस्तु के बेचने से अपनी जाति से पतित होना भी ठीक सग्त हो जाता है जैसे मांस का बेचना जाति से पतित होने का हेतु है। परन्तु लाख और लवण के बेचने में ऐसा बड़ा दोष कौन है ? जिस कारण शीघ्र पतित हो जाता हो यह नहीं दीखता। यदि किसी वस्तु के बेचने में शरीर की मलिनता और अपने वेदोक्त सन्ध्यादि कर्मों का विशेष त्याग वा हानि होती हो तो उस तेल आदि वस्तु को यावच्छक्य नहीं बेचना चाहिये। परन्तु तिल बेचने में कोई दोष नहीं दीखता। व्याकरण महाभाष्य में भी कहा है कि- ‘तेल और मांस न बेचना चाहिये, सो पृथक् निकाला हुआ तेल और मांस ही नहीं बेचा जाता परन्तु जिसमें तेल और मांस व्यापक वा मिला है ऐसे तेल के उपादान सरसों वा गौ आदि पशुओं के बेचने में वह दोष नहीं माना जाता अर्थात् सरसों वा गौ आदि के बेचने से तेल और मांस का बेचना नहीं लिया जाता।’३ यद्यपि यहां तिलों के बेचने की आज्ञा स्पष्टतः नहीं है तथापि तेल के बेचने का निषेध दिखाने और जिससे तेल निकलता है उसका विधान जताने से तिल के बेचने का विधान आ जाता है। जैसा निष्कृष्ट तिल का बेचना यहां कहा है वैसा महाभाष्यकार को भी इष्ट होता तो तिल के बेचने का भी निषेध करते। यदि कोई कहे कि वह व्याकरण है उसमें धर्मशास्त्र की व्याख्या क्यों होगी, सो नहीं। हमारे यहां सब ऋषियों ने जिस-जिस विषय के पुस्तक बनाये हैं उन सबमें प्रसग्वशात् धर्म-अधर्म का भेद वा कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विचार अवश्य दिखलाया है। और गौओं के बेचने की तो स्पष्ट आज्ञा है सो (पशवो ये च०) ‘ग्राम के पशु न बेचने चाहियें’१ इत्यादि कथन के साथ विरुद्ध पड़ता है। इससे अनुमान होता है कि महाभाष्य बनने के समय वे उक्त श्लोक मानवधर्मशास्त्र में नहीं थे किन्तु पीछे किसी ने मिलाये हैं। इस प्रकार ये उक्त नौ श्लोक विरुद्ध और असग्त होने से प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं, ऐसा बुद्धिमानों को विचारना चाहिये।
तिस के आगे एक सौ एकवें श्लोक से लेकर आठ श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन श्लोकों में निन्दित प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की प्रशंसा दिखाई है, सो पूर्वापर से विरुद्ध है। चतुर्थाध्याय में लिखा है कि- ‘उचित दान लेने से भी ब्राह्मण का ब्रह्मतेज घट जाता है।’२ तथा इसी दशवें अध्याय में लिखा है कि- ‘दान लेना नीच वा निकृष्ट काम है और दान लेने वाले ब्राह्मण का परलोक बिगड़ जाता है।’३ इत्यादि अनेक स्थलों में अनेक बार कहने से शुद्ध प्रतिग्रह को भी दान न लेने की अपेक्षा दूषित ठहराया है। फिर यहां लिखा है कि- ‘पवित्र को दोष लगता है यह धर्मानुकूल नहीं बनता।’४ यह कहना कैसे ठीक होवे ? यदि निकृष्टदान लेने आदि दुष्ट कर्मों से ब्राह्मण का तेज घट जाना सत्य है तो पवित्र दूषित होता है यह मानना चाहिये। क्योंकि दुष्ट कर्मों से ब्राह्मणपन का बिगड़ना ही पवित्र का दूषित होना है। इस प्रकार जब पवित्र दूषित होता है तो यह कहना कि- ‘पवित्र को दोष नहीं लगता’४ व्यर्थ वा निरर्थक हो गया। यदि पवित्र को दोष नहीं लगता तो किसको लगता है ? क्योंकि अपवित्र तो स्वयमेव दूषित ही है, फिर कौन दूषित होता है? और यह युक्ति से भी विरुद्ध है जो कि पवित्र को दोष न लगे। वास्तव में पवित्र ही दूषित होता और जो अपवित्र है वही पवित्र बन जाता है। यदि पवित्र दूषित न हो तो ब्राह्मणादि ऊंच वर्णों का दुष्ट कर्मादि के सेवन से अपने ऊंच अधिकार वा जाति से पतित होना भी न बन सके और ऐसा होने पर शुभ-अशुभ विशेष कर्मों के सेवन से ब्राह्मणादि वर्णों की उत्तमता-निकृष्टता जताने में तत्पर- ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता और ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।’५ इत्यादि धर्मशास्त्र के वाक्य व्यर्थ हो जावेंगे। इस कारण वे उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में पौराणिक इतिहास भी असग्त हैं। क्योंकि यद्यपि आपत्काल में जिस किसी प्रकार प्राण की रक्षा मनुष्य को करनी चाहिये यह कहना किसी प्रकार ठीक है किन्तु सर्वथा ठीक नहीं है। कोई कर्म ऐसा हो सकता है कि जिसको करने की अपेक्षा प्राण का त्याग देना ही शास्त्रकारों ने उत्तम कहा और युक्ति से भी ठीक जान पड़ता है। आपत्काल में भी मनुष्य का मांसभक्षण करने की अपेक्षा प्राणत्याग करके मर जाना ही अच्छा है। तथा महाभारतादि में लिखा है कि- ‘अपना जीवन बचाने के लिये भी धर्म को न त्यागे अर्थात् शरीर भले ही नष्ट हो जावे, मर जाना स्वीकार कर ले, पर धर्म का त्याग कदापि न करे।’१ इत्यादि प्रकार धर्मशास्त्रों में प्रायः प्रमाण मिलते हैं। वेदधर्मानुयायी आर्य लोगों का सनातन काल से यही सिद्धान्त दृढ़ चला आता है कि शरीर तो वैसे भी घटादि के समान अनित्य हैं पर धर्म नित्य है जो मरने पश्चात् जीवात्मा के साथ जाकर जन्मान्तर में भी सुख पहुंचाता है फिर अनित्य वस्तु की रक्षा के लिये नित्यधर्म का त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। और जो ऐसा करता है उससे अधिक मूर्ख वा नास्तिक कौन होगा ? वेदविरोधी मनुष्यों का प्रायः यही सिद्धान्त रहता है कि किसी प्रकार का अधर्म क्यों न हो पर प्राण की रक्षा सर्वोपरि है। इसीलिये उनका नाम असुर है। इसलिये आपत्काल में भी मनुष्य को विशेष अधर्म का उपार्जन न करना चाहिये किन्तु उस समय थोड़े धर्म के सेवन से निर्वाह कर्त्तव्य है। इस प्रकार ये आठ श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं। इस दसवें अध्याय में सब एक सौ इकत्तीस श्लोक हैं, जिनमें सत्रह प्रक्षिप्त और एक सौ चौदह (११४) श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।