विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।
विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।
अंग्रेजी शासन काल में उच्च शिक्षा के नाम पर अनेक लोगों को भारत से इंग्लैंड भेजा गया और वहां वही पढ़ाया गया जो अंग्रेज कूटनीतिक दृष्टि से चाहते थे। वहां से लौटने पर उन्हीं लोगों को सता में भागीदारी दी। उन्होंने जो पढ़ा था, भारत में आकर मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षापद्धति के अन्तर्गत वही बताया, पढ़ाया, लिखाया। इस तरह अंग्रेजी मान्यताओं से प्रभावित उनके मानसपुत्रों का एक पूरा वर्ग तैयार हो गया जिसकी विचार-वंश-परम्परा आज तक चली आ रही है।
१५ अगस्त १९४७ को भारत के राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र होने पर अंग्रेज तो चले गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गयी। मैकाले की शिक्षापद्धति से भारत आज तक भी मुक्त नहीं हो पाया है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यताएं आज भी गौरव के साथ पढ़ाई और मानी जा रही हैं। उनके बोये विष के बीज कहीं भाषावाद, कहीं नस्लवाद, कहीं क्षेत्रवाद, कहीं घृणावाद के रूप में आज भी फलित हो रहे हैं और विडम्बना तो यह है कि हम भारतीय ही आज उन मान्यताओं के ध्वजवाहक बने हुए हैं।
मनुस्मृति के स्वरूप को विकृत करने वाला तो वह पूर्वज भारतीय ब्राह्मण-वर्ग था जिसने अपने विकृत आचरण, स्वार्थपूर्ण मानसिकता और पक्षपातपूर्ण लक्ष्यों को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति में समय-समय पर मनचाहे प्रक्षेप किये, किन्तु मनुस्मृति और मनुवाद के विषय में प्रायोजित रूप में भ्रान्ति-जाल फैलाने वाले पहले लेखक अंग्रेज ही थे। उसके पश्चात् भारतीयों की वह पीढ़ी है जिन्होंने अंग्रेज लेखकों के निष्कर्षों को स्पंज की तरह सोखा और फिर ज्यों की त्यों उगल दिया। उसी परम्परा में डॉ० भीमराव रामजी अम्बेडकर भी थे जो अंग्रेजी परम्परा के निष्कर्षों के बौद्धिक अनुसरणक र्ाा के साथ-साथ मनु और मनुस्मृति के तीव्र विरोधी भी बने। क्योंकि वे दलित वर्ग से सम्बद्ध नेता थे, अतः दलितों के बहुत बड़े वर्ग ने उन्हीं की मान्यताओं का अन्धानुकरण किया। इस प्रकार एक बहुत बड़ा वर्ग मनु और मनुस्मृति विषयक भ्रान्तियों का शिकार हो गया, और आज भी है।
अंग्रेजों के बाद उनकी विचार-परम्परा को वामपन्थी लेखकों ने हाथों-हाथ अपना लिया। उसका कारण यह था कि अंग्रेज लेखकों के निष्कर्ष वामपन्थियों के राजनीतिक लक्ष्य के अनुकूल और उसके साधक थे। आज स्थिति यह है कि भारत से शासन उठने के उपरान्त अंग्रेज लेखक अपनी पूर्वाग्रही मान्यताओं को छोड़कर तटस्थ निष्कर्ष प्रस्तुत करने लगे हैं जबकि वामपन्थी लेखक उन्हीं विकृत निष्कर्षो पर अडिग हैं; क्योंकि वामपन्थियों का राजनीतिक स्वार्थ तो उन्हीं निष्कर्षों से पूरा हो सकता है।
इन सब कारणों से आज भारत में ऐसा वातावरण बना हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल किसी भी मुद्दे को पकड़कर, चाहे वह संस्कृति, भाषा एवं धर्म-विरोधी है अथवा राष्ट्रीय एकता-विरोधी है, उसके माध्यम से वोट पाने की अपवित्र कोशिश करता रहता है। मनु और मनुवाद आज कुछ राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक शस्त्रास्त्र हैं, तो कुछ वर्गों के लिए सांस्कृतिक शस्त्रास्त्र हैं। जिस देश का वामपंथ प्रभावित केन्द्रीय शिक्षामन्त्री (या मानव संसाधन मन्त्री) प्राचीन भारत के वास्तविक इतिहास को कल्पित कहे और अवास्तविक एवं कल्पित इतिहास को वास्तविक कहे, कहे ही नहीं अपितु उस पर दुराग्रह करे; उस देश का रखवाला केवल ईश्वर ही हो सकता है! इससे सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंग्रेज और वामपन्थी लेखकों द्वारा फैलायी गयी भ्रान्तियां कितने व्यापक और गम्भीर स्तर तक पैठ बना चुकी हैं। यही स्थिति मनु, मनुस्मृति और मनुवाद की है। निहित स्वार्थी राजनीतिक दलों और दुराग्रही इतिहासकारों द्वारा आज जान-बूझकर ‘मनुवाद’ का गलत अर्थ लोगों के मन-मस्तिष्क में डाला जा रहा है। वे वर्ग और लेखक इस श द का अर्थ ‘जन्मना जाति-पांति, छूत-अछूत, नीच-ऊंच, छुआछूतयुक्त समाजव्यवस्था और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी विचारधारा’ के अर्थ में करते हैं। इस भ्रान्ति से आज के समीक्षक, बुद्धिजीवी और राजनेता भी भ्रमित हैं। यों समझिए कि ‘मनु, मनुस्मृति और मनुवाद’ का भ्रान्त अर्थ और विरोध एक सुनियोजित अफवाह के समान फैला हुआ है। इस अफवाह को फैलाने में कितने ही ऐसे लोग हैं जिनके द्वारा मनुस्मृति के गम्भीर-अगम्भीर अध्ययन की बात तो छोड़ दीजिए, उन्होंने मनुस्मृति को देखा तक नहीं होता। उसका दुष्परिणाम यह है कि आज हम मनु के वंशज भारतीयों को ही भारतीय इतिहास के आदिपुरुष, आदिविधिप्रणेता, आदिसमाज-व्यवस्थापक, आदि-धर्मशास्त्रकार और आदिराजा को अभिमान के साथ अपश द कहते हुए पाते हैं; प्रशंसा के स्थान पर निन्दा करते हुए देखते हैं। भारतीय अतीत को पिछड़ा और भारतीय प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने के लिए आज किसी पूर्वाग्रही अंग्रेज लेखक को भारत में आकर अगुवाई करने की आवश्यकता नहीं है। आज उनके मानसपुत्र भारतीय स्वयं झंडा उठाकर अपने अतीत को पिछड़ा कहने और अपने प्राचीन इतिहास तथा महापुरुषों को कल्पित कहने की रट अफीमचियों के समान लगाते मिलेंगे। देखिए, कूटनीति की कैसी विडम्बना को हम भोग रहे हैं!!