मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान
(अ) समान-व्यवस्था के आधार
वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-
(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥ (2.136)
अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –
(ख) विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।
वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)
अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।
(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-
मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-
पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।
यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)
अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।
देखिए, मनु के मन में शूद्र के प्रति कितनी उदारता एवं आदरभाव है कि वे अल्पगुणों वाला होते हुए भी शूद्र को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों द्वारा पहले समान दिलवा रहे हैं! क्या ऐसा उदार मनु शूद्रों के प्रति कठोर और अन्यायपूर्ण विधान कर सकता है? कदापि नहीं। यह एक ही तर्क यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान मनुस्मृति में जो शूद्र-विरोधी कठोर श्लोक मिलते हैं, स्पष्टतः वे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रक्षिप्त हैं। ऐसे उदार हृदय और मानवीय भाव रखने वाले महर्षि मनु का विरोध क्या उचित है?
(इ) शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान
शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-
भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।
भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥ (3.116)
अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।
क्या आज के वर्णरहित विश्व के किसीाी सयमानी समाज में मनु जैसा उच्च मानवीय दृष्टिकोण है? क्या आज के किसी समाज में मनु जैसा उदार-अद्भुत आदेश है? ऐसे अनुपम आदेशों के होते हुएाी मनु पर शूद्र विरोध का आरोप लगाना निरी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? मनुस्मृति में डाले गये, शूद्र विरोधी सभी श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करने के लिए, क्या यह अकेला ही श्लोक पर्याप्त नहीं है? मनु द्वारा शूद्रों का अद्भुत समान विहित करने के बादाी मनु का विरोध क्यों?