(अ) मनुस्मृति में वर्णित महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य हैं और सवर्ण हैं। मनु की व्यवस्था है कि आर्यों के समाज में चार वर्ण हैं (द्रष्टव्य 10.4 श्लोक)। उन चार वर्णों के अन्तर्गत होने से शूद्रवर्ण सवर्ण भी है और आर्यों के समाज का अंग भी है। मनु ने केवल उस व्यक्ति को अनार्य और असवर्ण माना है जो वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत नहीं है-
‘‘वर्णापेतम्…….आर्यरूपमिव-अनार्यम्’’ (10.57)
अर्थ-‘जो चार वर्णों में दीक्षित न होने से चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था से बाहर है और जो अनार्य है किन्तु आर्यरूप धारण करके रहता है, वह दस्यु है।’
मनु की वर्ण-व्यवस्था में आर्य-अनार्य, सवर्ण-असवर्ण का भेद संभव ही नहीं है, क्योंकि मुयतः चार वर्णों के ही परिवारों से गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार चार वर्ण बनते हैं। चारों वर्णों के व्यक्ति आर्य भी हैं और सवर्ण भी। शूद्र को अनार्य और असवर्ण परवर्ती जातिव्यवस्था में माना गया है; अतः उसका दायित्व मनु का नहीं, जातिवादियों का है। जातिवादियों ने मनु की बहुत-सी व्यवस्थाओं को बदल डाला है, ऐसी ही शूद्र-सबन्धी व्यवस्थाएं हैं। अनभिज्ञ लेखक और पाठक उन्हें मनु की व्यवस्था कहते हैं, यथा-
(क) शिल्प, कारीगरी, कलाकारी आदि कार्य करने वाले जनों को मनु ने वैश्यवर्ण के अन्तर्गत माना है किन्तु जाति व्यवस्थापकों ने उनको शूद्र कोटि में परिगणित कर दिया (10.99, 100)।
(ख) मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कर्म माना है (1.90)। किन्तु सदियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय भी यह कार्य कर रहे हैं, किन्तु उनको जाति व्यवस्थापकों ने वैश्य घोषित नहीं किया, अपितु उल्टे अन्य जातियों के किसानों को शूद्र घोषित कर दिया। इस पक्षपातपूर्णव्यवस्था को मनु की व्यवस्था नहीं माना जा सकता।