(अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर
मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-
(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)
अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’
(ख) शूद्र द्वारा उत्तम वर्ण की प्राप्ति का निर्देश तथा उत्तम वर्णों की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मनु ने इस श्लोक में भी किया है-
शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मदुवागनहंकृतः।
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥ (9.335)
अर्थ-‘सदा शुद्ध-पवित्र रहने वाला, अपने से उत्तम जनों या वर्णों की संगति में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के सेवा कार्य में संलग्न रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ अर्थात् वह वर्णपरिवर्तन की योग्यता अर्जित करके उत्तम वर्ण को प्राप्त करके द्विजाति वर्ण का हो जाता है।
(शूद्रों द्वारा वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में पृ0 104-108 पर द्रष्टव्य हैं)