‘मांसाहार और मनुस्मृति’

ओ३म्

मांसाहार और मनुस्मृति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्राचीन काल में भारत में मांसाहार नहीं होता था। महाभारतकाल तक भारत की व्यवस्था ऋषि मुनियों की सम्मति से वेद निर्दिष्ट नियमों से राजा की नियुक्ति होकर चली जिसमें मांसाहार सर्वथा वर्जित था। महाभारतकाल के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। ऋषि तुल्य ज्ञानी मनुष्य होना समाप्त हो गये। ऋषि जैमिनी पर आकर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उन दिनों अर्थात् मध्यकाल के तथाकथित ज्ञानियों ने शास्त्र ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता, मांसाहार की प्रवृति अथवा किसी वेद-धर्मवेत्ता से चुनौती न मिलने के कारण अज्ञानवश वेदों के आधार पर शास्त्रों में प्रयुक्त गोमेघ, अश्वमेघ, अजामेघ व नरमेध आदि यज्ञों को विकृत कर उनमें पशुओं के मांस की आहुतियां देना आरम्भ कर दिया था। ऐसा होने पर भी हमें लगता है कि यज्ञ से इतर वर्तमान की भांति पशुओं की हत्या नहीं होती थी। जिन पशुओं को यज्ञाहुति हेतु मारा जाता था, ऐसा लगता है कि उस मृतक पशुओं का सारा शरीर तो यज्ञ में प्रयुक्त नहीं हो सकता था, अतः यज्ञशेष के रूप में यज्ञकर्ताओं द्वारा यज्ञ में आहुत उस पशु के मांस का भोजन के रूप व्यवहार किया जाना भी सम्भव है। कालान्तर में इसके अधिक विकृत होने की सम्भावना दीखती है। अतः कुछ याज्ञिकों की अज्ञानता के कारण यज्ञों में पशु हिंसा का दुष्कृत्य हमारे मध्यकालीन तथाकथ्ति विद्वानों ने प्रचलित किया था। इन लोगों ने अपनी अज्ञानता व स्वार्थ के कारण प्राचीन धर्म शास्त्रों की उपेक्षा की। यदि वह मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही देख लेते तो उनको ज्ञात हो सकता था कि न केवल यज्ञ अपतिु अन्यथा भी पशुओं का वध घोर पापपूर्ण कार्य है।

 

भारत से दूर अन्य देशों के लोगों के पास वेद और वैदिक साहित्य जैसे न तो ग्रन्थ थे, न आचार्य व गुरु थे और न ही श्रेष्ठ परम्परायें थी। अतः उन लोगों का मांसाहार करना शास्त्र, गुरु, आचार्य व ज्ञान के अभाव में अनुचित होते हुए भी वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक हुआ। भारत में जब विदेशी आक्रमण हुए तो यह मांसाहार भी आक्रान्ताओं के साथ आया। आक्रान्ताओं का एक कार्य भारत के लोगों का मतान्तरण या धर्मान्तरण करना भी था। अतः भारत के मांस न खाने वाले लोगों को मृत्यु का भय दिखाकर मुट्ठी भर संख्या में आये आक्रान्ताओं ने असंगठित लोगों का धर्मान्तरण करने के साथ उन्हें मांसाहारी भी बनाया। इतिहास में इन घटनाओं के समर्थक अनेक उदाहरण सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। अतः भारत में मांसाहार की प्रवृत्ति में वृद्धि का कारण मांसाहारी विदेशियों का आक्रामक के रूप में भारत आना प्रमुख कारण बना।

 

वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा गया है जिसका तात्पर्य ही यह है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाये। इस दृष्टि से यज्ञ में मांस का विधान करने वाले हमारे मध्यकालीन विद्वानों की बुद्धि पर हमें दया आती है। इन लोगों ने देश व संसार सहित वैदिक धर्म को सबसे अधिक हानि पहुंचाई हैं। मांसाहार के सन्दर्भ में वेदों में पशुओं की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘‘यजमानस्य पशुन् पाहि कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा व हिंसा न करने की बात कही गई है। प्राचीन वैदिक परम्परा में धर्म व आचार विषयक किसी भी प्रकार की शंका होने पर वेद वचनों को ही परम प्रमाण माने जाने की परम्परा भारत में रही है जिसका समर्थन मनुस्मृति से भी होता है। इस लेख में हम मनुस्मृति में मांसाहार विरोधी महाराज मनु जी का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता खादकश्येति घातकः।।               मनुस्मृति 5/51

 

पौराणिक पं. हरगेविन्द शास्त्री, व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न इस मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़ेटुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातकहिसक होते हैं।

 

इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य शिवपूजन सिंह जी लिखते हैं कि अनुमन्ता-जिसकी अनुमति के बिना उस प्राणी का वध नहीं किया जा सकता, वह क्रय-विक्रयी वा खरीदकर बेचने वाला, मारने वाला हन्ता, धन से खरीदने वाला, धन लेकर बेचने वाला और उसमें प्रवृत्ति करने वाला तथा मांस पकाने वाला घातक वा प्राणी हिंसा करने वाले होते हैं। खरीदने (खाने) वाले तथा बेचने वाले दोनों पापभागी होते हैं। यह घातक (हिंसक) दोष शास्त्रोक्त विधि से हिंसा है। शास्त्र के विधि-निषेध उभयपदक होते हैं तथा मांस-भक्षक के लिए अन्यत्र प्रायश्चित कहा गया है।

 

मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः। में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये। अतः मनुस्मृति में राजर्षि मनु बता रहे हैं कि जो मनुष्य मांसाहार करता है वह राक्षस व पिशाच कोटि का मनुष्य है। ब्राह्मण व अन्य मनुष्यों का भोजन तो देवताओं को दी जाने वाली गोघृत, अन्न, ओषधि, नाना प्रकार के फल व शाकाहारी पदार्थों की आहुतियां ही हैं।

 

हम समझते हैं कि मांसाहार का सेवन मनुष्य के आचरण से जुड़ा कार्य है। प्राणियों की हिंसा होने से इसे सदाचार कदापि नहीं कह सकते। बहुत से लोगों कि यह मिथ्या धारणा है कि मांसाहार से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। यह मान्यता असत्य व अप्रमाणिक है। हमारे महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द, हनुमान, भीम, चन्दगीराम व अन्य अनेक शारीरिक बल में संसार में श्रेष्ठतम रहे हैं। यह सभी शाकाहारी गोदुग्ध, गोघृत, अन्न व फल आदि का सेवन ही करते थे। यह भी सर्वविदित है कि मांसाहार से अनेक प्रकार के रोगों की संभावना होती है। मनुष्य के शरीर की आकृति, इसके खाद्य व पाचन यन्त्र भी शाकाहारी प्राणियों के समान ईश्वर ने बनाये है। मांसाहारी पशु केवल मांस ही खाते हैं, उन्हें अन्न अभीष्ट नहीं होता। यदि मनुष्य अन्न का त्याग कर पशुओं की भांति केवल मांसाहार करें तो अनुमान है कि वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेंगे। अन्न खाना मनुष्य के लिए आवश्यक व अपरिहार्य है। महर्षि दयानन्द जी द्वारा गोकरुणानिधि में किया गया यह प्रश्न भी समीचीन व महत्वपूर्ण है कि जब मांसाहार के कारण सभी पशु आदि समाप्त हो जायेंगे तब क्या मांसाहारी मनुष्य मांस की प्रवृत्ति के कारण अपने आस पास के मनुष्यों को मारकर खाया करेंगे? मांसाहार करना अमनुष्योचित कार्य है। इससे मनुष्य के स्वभाव में हिंसा की प्रवृत्ति व क्रोध का प्रवेश होता है। मनुष्यों में ईश्वर ने दया व करूणा का जो गुण दिया है वह भी मांसाहार से बाधित, न्यून व समाप्त होता है। परमात्मा ने मनुष्यों के लिए प्रचुर मात्रा में अन्न व अन्य भोज्य पदार्थ बनायें हैं जो भूख वा क्षुधा को शान्त करने, बल व आरोग्य देने सहित सर्वाधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। यह पदार्थ शीघ्र ही पच जाते हैं। शाकाहारी मनुष्य आयु की दृष्टि से भी अधिक जीते हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह, श्री कृष्ण व अर्जुन आदि योद्धा 120 से 180 वर्ष बीच की आयु के थे। शाकाहारी मनुष्य शाकाहारी पशुओं के समान फुर्तीला होता है। यह मांसाहारियों से अधिक कार्य कर सकता है। यदि सभी शाकाहारी होंगे तो बल-शक्ति-आयु में अधिक होने से देश को अधिक लाभ होगा। चिकित्सा पर व्यय कम होगा और अधिक शारीरिक क्षमता से देश व समाज की उन्नति अधिक होगी। शाकाहार पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी आवश्यक है। यदि मांसाहार जारी रहा तो हो सकता है कि भविष्य में पृथिवी पशु व पक्षियों से रहित हो जाये और तब मनुष्य का जीवन भी शायद् सम्भव नहीं होगा। एक घटना को देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। एक बार हम अपने एक मित्र के परिवार सहित उत्तर पूर्वी प्रदेशों की यात्रा पर गये।एक बंगाली बन्धु की टैक्सी में जब हम शिलांग घूम लिये तो अनायास उस बन्धु ने हमसे पूछा कि क्या आपने यहां कोई पक्षी देखा? हमने कुछ क्षण सोचा और न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा कि यहां के लोग पक्षियों को मार कर खा जाते हैं जिससे यहां सभी पक्षी समाप्त हो गये हैं। कहीं यही स्थिति भविष्य में समस्त भारत व विश्व में न आ जाये, इसके लिए हमें ईश्वर की वेद में की गई वेदाज्ञा का पालन करते हुए मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसी में हमारी और हमारी भावी पीढ़ियों की भलाई है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

19 thoughts on “‘मांसाहार और मनुस्मृति’”

    1. विशुद्ध मनु स्मृति में ऐसी कोई बात नहीं
      महर्षि मनु ने तो मांसाहारी को दण्ड का भागी बताया है

      1. Manusmriti chapter 5 verse 30 mai likha hai kahte hai,khane yogya janwaro ko khana paap nahi hai kyuki brahma ne dono khane wale khagpadartho ka nirmad kiya hai .jaha beemans khane sawal sach much ata hai uska asar manaw pr padta hai

        1. Please refer below tranlation:

          Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
          टिप्पणी :
          ये (५।२६ – ४२) सतरह श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं – (क) जिस मांस के विषय में मनु ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है – (१) यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।। (११।९५) २. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। (५।४८) अर्थात् मांस राक्षसों का भोजन है । यह प्राणियों की हिंसा के बिना नहीं प्राप्त होता । और प्राणियों की हिंसा से सुख नहीं मिल सकता, इसलिये मांस – भक्षण कभी न करें । और ५।५१ में मांस खाने वाले को घातक – आठ पापियों में गिना है । क्या वही विद्वान् – मनु मांस भक्षण का विधान कर सकता है ? इसलिये ५।२६-३८ तक के मांस भक्षण के प्रतिपादक श्लोक मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने अहिंसा को परम धर्म माना है, फिर वह हिंसा का विधान कैसे कर सकता है । (ख) और यज में पशुबलि का विधान ५।३९ – ४२ में मनु की मान्यता के विरूद्ध है । जिस यज्ञ का एक ‘अध्वर – हिंसारहित’ सार्थक नाम शास्त्रों में बताया है और जिसे ‘यज्ञों वै श्रेष्ठतम कर्म’ कहकर सबसे उत्तम कर्म माना है, क्या उसमें प्राणियों की बलि करना कदापि संगत हो सकता है ? और यज्ञ का उद्देश्य है – वायु, जलादि की शुद्धि करना । इसलिये उसमें रोग नाशक, कीटाणु- नाशक, पौष्टिक, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति दी जाती है । यदि मांस की आहुति से यज्ञ के उद्देश्य, की पूर्ति होती हो तो मनुष्य को अन्त्येष्टि के समय सुगन्धित घृत, सामग्री चन्दनादि के प्रक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि उनके मत से तो मांस से ही उद्देश्य पूर्ति हो जायेगी । किन्तु यह प्रत्यक्षविरूद्ध है । अग्नि में मांस डालने से दुर्गन्ध ही फैलती है, सुगन्ध नहीं । और जिस मनु ने गृहस्थी के लिये पंच्चमहायज्ञों का इसलिये विधान किया है कि (३।६८-६९) घर में चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखल तथा जल – कलशादि के द्वारा अनजाने में भी जो हिंसा हो जाती है, उनके प्रायश्चित के लिये दैनिक महायज्ञों द्वारा परिहार हो । क्या वह मनु जान बूझकर यज्ञों में पशुओं के वध का विधान कर सकता है ? और उस पशु – वध का कोई प्रायश्चित भी नहीं लिखा । और मनु जी ने वेद को परम प्रमाण माना है । ‘धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ यह मनु जी का निश्चित सिद्धान्त है । जब वेदों में पशुओं की हिंसा के निषेध का स्पष्ट विधान किया गया है, तो मनु वेद – विरूद्ध पशुवध को कैसे कह सकते हैं ? वास्तव में ऐसी मिथ्या मान्यतायें वाम मार्गी लोगों की हैं, जिन्होंने मनु स्मृति जैसी प्रामाणिक स्मृति में भी अपनी मान्यता की पुष्टि में प्रक्षेप किया है । क्यों कि उनकी मान्यता है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन ये पांच्चमकार मोक्ष देने वाले हैं । (ग) ५।४२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ वाक्य से भी इन श्लोकों की प्रक्षिप्तता स्पष्ट हो रही है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न ही है । क्यों कि मनु की यह शैली नहीं है कि वह अपना नाम लेकर स्वयं प्रवचन करें । (घ) ५।४२ में यज्ञ से भिन्न मधुपर्क तथा श्राद्ध में भी पशुओं की हिंसा लिखी है, यह भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मधुपर्क, जिसमें मधु – शहद, घृत अथवा दही का ही मिश्रण होता है, उसमें भी मांस की बात कहना मधुपर्क को ही नहीं समझना है । और जिस श्राद्ध के लिये (३।८२ में) मनु ने अन्न, दूध फल, मूल, जलादि से विधान किया है, क्या वह अपने वचन के ही विरूद्ध श्राद्ध में मांस का विधान कर सकते हैं ? यथार्थ में यह मृतकश्राद्ध की कल्पना करने वालों का अयुक्तियुक्त प्रक्षेप है । (ड) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी कम नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि इनके बनाने वाले भिन्न – भिन्न व्यक्ति थे । क्यों कि एक व्यक्ति के लेख में ऐसे सामान्य विरोध नहीं हो सकते । जैसे – १. ५।३१ श्लोक में यज्ञ के लिये मांस का खाना देवों की विधि बताई है और यज्ञ से अन्यत्र शरीर – पुष्टि के लिये मांस खाना राक्षसों का कार्य माना है । यदि मांस खाने में दोष है, तो चाहे यज्ञ के निमित्त से खाये अथवा अन्य निमित्त से, दोष कैसे हटाया जा सकता है ? और देवता व राक्षस का इससे क्या भेद हुआ ? मांस तो दोनों ही खा रहे हैं । २. और ५।१४-१५ में मछलियों के खाने का सर्वथा निषेध किया हे और ५।१६ में हव्य – कव्य में मछलियों के खाने का विधान किया है । ३. ५।२२ में कहा है कि सेवकों की आजीविका के लिये पशु – पक्षियों का वध करना चाहिये और ५।३८ में कहा है कि यज्ञ से अन्यत्र पशुओं का वध करने वाला जितने पशुओं को मारता है, उतने जन्मों तक वह बदले में मारा जाता है । ४. और ५।११-१९वें श्लाकों में कुछ पशुओं को भक्ष्य और कुछ को अभक्ष्य कहा है और ५।३० में कहा है कि ब्रह्मा ने सारे पशुओं व पक्षियों को खाने के लिये बनाया है । अतः इस प्रकार के परस्पर – विरोधी वचन किसी विद्वान् व्यक्ति के भी नहीं हो सकते, मनु के कहना तो अनर्गल प्रलाप ही है ।

          fore details refer to

          https://aryamantavya.in/manu-smriti/headingdetail/944/5

  1. rishwa arya jee namaste kripya ek baat batten ki jo ved mein cow ke lie aghanya shabd use kia gaya hai wo sabhi cow ke lie hai ya sir koi special cows ke lie kripya thoda clear karien

    1. OM..
      NAMASTE JI..
      GAU SHABD SE AAP KYAA SAMAJHTEHO? GAU TO SAB RAKSHAA KARNE YOGYA HOTI HAI.
      DHANYAVAAD

  2. भाई साब..,
    बात अगर मनुस्मृति तक ही समित होती
    तो शा यद् आपकी बात पर विश्वास रखना लाजमी होता पर, यहां एक आम ही सड़ा नही है बल्कि पूरा पेड़ ही दीमक खा गया है .

    *यज्ञ में बकरा ,घोडा ,व गाय आदि पशु के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए ,इस विषय में वृग्वेद के प्राचीन व्याख्यान’ऐतरेय ब्राम्हण’
    में निर्देश किया गया है.
    स्वामी विवेकानन्द ने भी गो मासाहार समर्थन किया है। तथा स्वामी दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में इसी गोमेध के विषय में लिखा है . जहां गोमेधादिक् यज्ञ लिखे है , वहा पशुओ में नरो को मारना लिखा है , क्योकि जैसे पुष्ट बैल आदि नरो में है.वैसे गो आदि नही होते .जो वंध्या गाय होती है.उस का भी गोमेध में मारना लिखा है.(देखे: सत्यार्थ प्रकाश ‘सन् १८७५पृ . ३०३,दयानन्द भाव चित्रवली ,पृ२८पर उधवृत.)
    सभी सन्दर्भ -सुरेन्द्र कमार शर्मा ‘अज्ञात’ जी से साभार..

    1. Satyarth prakash ka dwiteey sanskaran manya hai

      aur swami vivekanand hamare liye aadarsha nheen hien

  3. Maine Dr. Zakir naik ka 1 episode dekha tha you tube pr jisme usne kaha h ki mnusmriti m chapter no. 5 slok no. 30 m likha h ki nonveg khana chahiye…
    Aise log hindu dharam ko badnam krte h unfortunately hme apna dhrm ka kam gyan h isliye dusre dhrm k log slok ka glt slt matlab nikal k hmare dhrm or bhagwan ko badnam krrhe h… Islamic log ya to aatankwad se ya love zihad se hindus ki population kam krrhe h….. Ise rokna chahiye hmara hindu dharam sabse pavitra or accha dharam h.

    1. Anamika ji Mai ek Muslim hu aur mere kuch questions hai sanatan dharm ko lekar ke Bhagwan Ram ki mrityu kab, kaha aur kaise hui thi? Ram agar wakai Bhagwan the woh yakinan antar
      yami hi honge, toh Sita Maiya ke apahran ho Jane pe unhone Sita ki khoj me apne Bhai aur Hanuman ko kyu Bheja unhe toh khud hi malum ho Jana chahiye tha ke Sita ko Rawan utha le gaya hai.
      Shiv Bhagwan ki patni Parvati nahane Jane ke pehle apne sharir ke mail se Ganesh ji ko banati hai apni suraksha ke liye phir yeh baat Bhagwan shiv ko kyu kar pata nahi chalti ke jiska woh gardan kaat rahe hai woh toh unki hi patni ka banaya hua hai suraksha ke liye. Phir how its possible to fit a head of elephant baby on humans neck??

  4. Accha ji hindu dharm me to ye bhi likha hai madam ki murti puja nhi krni chahiye kya aap vo manti hai… bahut Kuch likha hai Hindu dharm me pr phir bhi log apne marzi ka krte hai…

  5. मनुस्मृति के 5/35 में लिखा है जो मनुष्य मांस नहीं खाएगा वह 21 जन्मों तक पशुयोनि में जन्म लेगा।
    लेखक को इस पर दो शब्द भी लिखना भारी पड़ रहा था शायद?

    1. Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
      टिप्पणी :
      ये (५।२६ – ४२) सतरह श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं – (क) जिस मांस के विषय में मनु ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है – (१) यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।। (११।९५) २. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। (५।४८) अर्थात् मांस राक्षसों का भोजन है । यह प्राणियों की हिंसा के बिना नहीं प्राप्त होता । और प्राणियों की हिंसा से सुख नहीं मिल सकता, इसलिये मांस – भक्षण कभी न करें । और ५।५१ में मांस खाने वाले को घातक – आठ पापियों में गिना है । क्या वही विद्वान् – मनु मांस भक्षण का विधान कर सकता है ? इसलिये ५।२६-३८ तक के मांस भक्षण के प्रतिपादक श्लोक मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने अहिंसा को परम धर्म माना है, फिर वह हिंसा का विधान कैसे कर सकता है । (ख) और यज में पशुबलि का विधान ५।३९ – ४२ में मनु की मान्यता के विरूद्ध है । जिस यज्ञ का एक ‘अध्वर – हिंसारहित’ सार्थक नाम शास्त्रों में बताया है और जिसे ‘यज्ञों वै श्रेष्ठतम कर्म’ कहकर सबसे उत्तम कर्म माना है, क्या उसमें प्राणियों की बलि करना कदापि संगत हो सकता है ? और यज्ञ का उद्देश्य है – वायु, जलादि की शुद्धि करना । इसलिये उसमें रोग नाशक, कीटाणु- नाशक, पौष्टिक, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति दी जाती है । यदि मांस की आहुति से यज्ञ के उद्देश्य, की पूर्ति होती हो तो मनुष्य को अन्त्येष्टि के समय सुगन्धित घृत, सामग्री चन्दनादि के प्रक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि उनके मत से तो मांस से ही उद्देश्य पूर्ति हो जायेगी । किन्तु यह प्रत्यक्षविरूद्ध है । अग्नि में मांस डालने से दुर्गन्ध ही फैलती है, सुगन्ध नहीं । और जिस मनु ने गृहस्थी के लिये पंच्चमहायज्ञों का इसलिये विधान किया है कि (३।६८-६९) घर में चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखल तथा जल – कलशादि के द्वारा अनजाने में भी जो हिंसा हो जाती है, उनके प्रायश्चित के लिये दैनिक महायज्ञों द्वारा परिहार हो । क्या वह मनु जान बूझकर यज्ञों में पशुओं के वध का विधान कर सकता है ? और उस पशु – वध का कोई प्रायश्चित भी नहीं लिखा । और मनु जी ने वेद को परम प्रमाण माना है । ‘धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ यह मनु जी का निश्चित सिद्धान्त है । जब वेदों में पशुओं की हिंसा के निषेध का स्पष्ट विधान किया गया है, तो मनु वेद – विरूद्ध पशुवध को कैसे कह सकते हैं ? वास्तव में ऐसी मिथ्या मान्यतायें वाम मार्गी लोगों की हैं, जिन्होंने मनु स्मृति जैसी प्रामाणिक स्मृति में भी अपनी मान्यता की पुष्टि में प्रक्षेप किया है । क्यों कि उनकी मान्यता है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन ये पांच्चमकार मोक्ष देने वाले हैं । (ग) ५।४२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ वाक्य से भी इन श्लोकों की प्रक्षिप्तता स्पष्ट हो रही है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न ही है । क्यों कि मनु की यह शैली नहीं है कि वह अपना नाम लेकर स्वयं प्रवचन करें । (घ) ५।४२ में यज्ञ से भिन्न मधुपर्क तथा श्राद्ध में भी पशुओं की हिंसा लिखी है, यह भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मधुपर्क, जिसमें मधु – शहद, घृत अथवा दही का ही मिश्रण होता है, उसमें भी मांस की बात कहना मधुपर्क को ही नहीं समझना है । और जिस श्राद्ध के लिये (३।८२ में) मनु ने अन्न, दूध फल, मूल, जलादि से विधान किया है, क्या वह अपने वचन के ही विरूद्ध श्राद्ध में मांस का विधान कर सकते हैं ? यथार्थ में यह मृतकश्राद्ध की कल्पना करने वालों का अयुक्तियुक्त प्रक्षेप है । (ड) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी कम नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि इनके बनाने वाले भिन्न – भिन्न व्यक्ति थे । क्यों कि एक व्यक्ति के लेख में ऐसे सामान्य विरोध नहीं हो सकते । जैसे – १. ५।३१ श्लोक में यज्ञ के लिये मांस का खाना देवों की विधि बताई है और यज्ञ से अन्यत्र शरीर – पुष्टि के लिये मांस खाना राक्षसों का कार्य माना है । यदि मांस खाने में दोष है, तो चाहे यज्ञ के निमित्त से खाये अथवा अन्य निमित्त से, दोष कैसे हटाया जा सकता है ? और देवता व राक्षस का इससे क्या भेद हुआ ? मांस तो दोनों ही खा रहे हैं । २. और ५।१४-१५ में मछलियों के खाने का सर्वथा निषेध किया हे और ५।१६ में हव्य – कव्य में मछलियों के खाने का विधान किया है । ३. ५।२२ में कहा है कि सेवकों की आजीविका के लिये पशु – पक्षियों का वध करना चाहिये और ५।३८ में कहा है कि यज्ञ से अन्यत्र पशुओं का वध करने वाला जितने पशुओं को मारता है, उतने जन्मों तक वह बदले में मारा जाता है । ४. और ५।११-१९वें श्लाकों में कुछ पशुओं को भक्ष्य और कुछ को अभक्ष्य कहा है और ५।३० में कहा है कि ब्रह्मा ने सारे पशुओं व पक्षियों को खाने के लिये बनाया है । अतः इस प्रकार के परस्पर – विरोधी वचन किसी विद्वान् व्यक्ति के भी नहीं हो सकते, मनु के कहना तो अनर्गल प्रलाप ही है ।

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      https://aryamantavya.in/manu-smriti/headingdetail/949/5

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