यह युग ज्ञान और जनसँख्या के विस्फोट का युग है। कोई भी
समस्या हो जनसँख्या की दुहाई देकर राजनेता टालमटोल कर देते
हैं।
1967 ई0 में गो-रक्षा के लिए सत्याग्रह चला। यह एक कटु
सत्य है कि इस सत्याग्रह को कुछ कुर्सी-भक्तों ने अपने राजनैतिक
स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया। उन दिनों हमारे कालेज के एक
प्राध्यापक ने अपने एक सहकारी प्राध्यापक से कहा कि मनुष्यों को
तो खाने को नहीं मिलता, पशुओं का क्या करें?
1868 में, मैं केरल की प्रचार-यात्रा पर गया तो महाराष्ट्र व
मैसूर से भी होता गया। गुंजोटी औराद में मुझे ज़ी कहा गया कि
इधर गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक भी यही प्रचार करते हैं।
मुझे इस प्रश्न का उत्तर देने को कहा गया। जो उत्तर मैंने महाराष्ट्र में
दिया। वही अपने प्राध्यापक बन्धु को दिया था।
मनुष्यों की जनसंज़्या में वृद्धि हो रही है यह एक सत्य है,
जिसे हम मानते हैं। मनुष्यों के लिए कुछ पैदा करोगे तो ईश्वर मूक
पशुओं के लिए तो उससे भी पहले पैदा करता है। गेहूँ पैदा करो
अथवा मक्की अथवा चावल, आप गन्ना की कृषि करें या चने की या
बाजरा, जवारी की, पृथिवी से जब बीज पैदा होगा तो पौधे का वह
भाग जो पहले उगेगा वही पशुओं ने खाना है। मनुष्य के लिए
दाना तो बहुत समय के पश्चात् पककर तैयार होता है।
वैसे भी स्मरण रखो कि मांस एक उज़ेजक भोजन है। मांस
खानेवाले अधिक अन्न खाते हैं। अन्न की समस्या इन्हीं की उत्पन्न
की हुई है। घी, दूध, दही आदि का सेवन करनेवाले रोटी बहुत कम
खाते हैं। मज़्खन निकली छाछ का प्रयोग करनेवाला भी अन्न
थोड़ा खाता है। इस वैज्ञानिक तथ्य से सब सुपरिचित हैं, अतः
मनुष्यों के खाने की समस्या की आड़ में पशु की हत्या के कुकृत्य
का पक्ष लेना दुराग्रह ही तो है।