मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

( 1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों  को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-

पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः।                                                                                   कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।                                                                                                                                                                   (3।68)

यहाॅ गृहस्य के पाॅच ऐसे पातकों का उल्लेख किया जो प्रत्येक गृहस्थी को बिना जाने बूझे करने पडते है। जैसे, चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, और घडौची। इनके  प्रयोग से छोटे छोटे कीडे दबकर मर जाते है । गृहस्थियों को यह हिंसा बिना इच्छा के ही करनी पडती है। वे नहीं चाहते कि किसी को पीडा दें, परन्तु पहुॅच जाती है। जिस धर्म में अनजाने चीटियों के मर जाने से भी मनुष्य दोषी ठहरता हो उसमे जान-बूझकर किसी को मार डलना कितना बडा पाप न होगा। इसी सूना दोष मिटाने के लिये एक प्रकार के दैनिक प्रायश्चित के रूप में महायज्ञों का विधान है:-

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थ महर्षिभिः।

पन्च क्लप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।।

ये पाॅच महायज्ञ यह है:-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम्।।

ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वयज्ञ और नरयज्ञ। लोग यह समझते है कि यज्ञ और पशु वध का विशेष सम्बन्ध है। यज्ञ का अर्थ ही बहुत लोग मारना समझते हैं, और यही ’बलि‘ शब्द  का अर्थ समझा जाता है। दुर्भाग्य का विषय है कि यह दोनों शब्द अपनी उत्कृष्टता से गिरकर इस अधोगति को पहुॅच गये है। ‘यज्ञ’ यज धातु से निकलता है जिसका अर्थ है देव-पूजा, संगतिकरण तथा दान । इससे और मारने से क्या सम्बन्ध ? कुछ लोग यहाॅ तक समझते है कि नरयज्ञ वह यज्ञ है जिसमें मनुष्य को मारकर उसमें मासं की आहुति दी जाती है। इन भले आदमियो से पूछो कि क्या इसी प्रकार ब्रह्मयज्ञ में ब्रह्म को मारा जाता होगा। और पितृयज्ञ में माता-पिता को अर्थ अनर्थ करनेवालो के लिये क्या कहा जाय। नरयज्ञ का पय्र्याय अतिथियज्ञ है। मनुस्मृति कहती है कि नरयज्ञ का अर्थ है अतिथिपूजन। फिर भी लोग यज्ञ को हिंसापरक समझने लगे तो इसमें विचारे शब्द का क्या दोष ? इसी प्रकार बलि का अर्थ है ‘भूत-यज्ञ’ अर्थात  चीटी कौवे आदि को भोजन पहुॅचाना। इसलिये पितृयज्ञ में पशु-हिंसा करने का विधान स्पष्टतया पीछे की मिलावट है। जिस समय महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया उस समय यज्ञों में पशुओं को मारकर चढाना एक साधारण बात थी। इसी अत्याचार से दुखी होकर महात्मा बुद्ध ने वैदिक यज्ञों का निषेध किया था क्योकि वस्तुतः वह यज्ञ वैदिक नही रह गये थे। वाम-मार्ग अर्थात उलटे मार्ग का प्रचार था। प्रतीत होता है कि उसी समय या उसके पश्चात् मनुस्मृति में यह मिलावट हुई।

2 thoughts on “मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय”

    1. http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&sukt=18&mandal=4&mantra=13&commentrator=5
      प्रभु को भूल जाने पर जीवनोपाय के आभाव में गरीबी में कुत्तो की आंतो को पकानेवाला बना |
      पूरा मन्त्र का अर्थ पढ़े आपको जानकारी मिल जायेगी | क्या बोला गया है |
      धन्यवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *