ओउम
डा. अशोक आर्य
मानव की इन्द्रियां मानव को अनेक पतन से भरे मार्ग पर ले जाकर उस का जीवन ही नष्ट कर देती हैं । जो मानव इन को अपने बस मे कर लेता है , वह उतम सारथी की भान्ति अपने गन्तव्य पर पहुंचने में सफ़ल हो्ता है । इस सूक्त का यह मन्त्र इस प्रकार का ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
युञ्जन्त्यस्यकाम्याहरीविपक्षसारथे।
शोणाधृष्णूनृवाहसा॥ ऋ01.6.2
युन्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्शसा रथे ।
शोणा ध्रष्णू न्रवाहसा ॥रिग्वेद १.६.२ ॥
इस मन्त्र में छ: बातों पर उपदेश देते हुए कहा गया है कि: –
१. इन्द्रियों को अपने बस में रखो
जो व्यक्ति अपने मन को सूर्यादि , ईश्वर के बनाए हुए ज्ञान के स्रोतों की प्राप्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित कर इन के विज्ञानों को समझने का प्रयास करते हैं , वह अपनी इन्द्रियों को बडी सरलता से अपने बस में करने वाले होते हैं , यह लोग इन्द्रियों पर इस प्रकार काबू कर लेते हैं , जिस प्रकार एक सफ़ल सारथी अपने रथ के घोडों को अपने वश में कर लेता है । एसे लोग ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रुपी घोडों को अपने शरीर रुपी रथ में सजाते हैं , जो्डते हैं ।
उपर की पंक्तियों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जीवन के दो महत्व पूर्ण अंग होते हैं :
क) ज्ञानेन्द्रियां :
ख) कर्मेन्द्रियां :
इन दोनों प्रकार की इन्द्रियों पर उतम पकड बनाए रखने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन के उद्देश्यों को सफ़लता से प्राप्त कर सकता है । इन दोनों को वश में रखने के लिए उसे यत्न करना होता है , परिश्रम करना होता है , पुरुषार्थ करना होता है ,मेहनत करना होता है । ज्ञानेन्द्रियां उसे विश्व का सब ज्ञान देती हैं , उसे बताती हैं कि क्या तेरे हित में है तथा क्या नहीं ?, क्या करना है तथा क्या नहीं ? जब भले बुरे का ज्ञान होता है तो ही कर्म सक्रिय होकर इस पर कार्य कर इसे अपना बना पाता है किन्तु यह प्रप्ति होती उसको ही है जो निरन्तर पुरुषार्थ में लगा रहता है । जो आलसी बनकर खटिया में पडा रहता है , उसे कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि जो उसके पास है वह भी धीरे धीरे समाप्त हो जाता है , लुट जाता है । अत: एसे व्यक्ति अपनी इन्द्रिय रुपी घोडों को कभी भी चरने के लिए खुला नहीं छोडते इन्हें सदा ही कर्म में लगाए रखते हैं , कर्म में व्यस्त रखते हैं । अत: इन्द्रियां कभी भी विषयों में ही चरती रहें , विचरण करती रहें , एसा सम्भव नहीं हो पाता ।
२. प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर काबू रखते हैं , अंकुश लगाए रखते है , उनकी यह इन्द्रियां सदा प्रभु में ही विचरण करती हैं , प्रभु के बताए मार्ग पर ही चलती हैं तथा उसके इंगित पर ही कार्य करती हैं ,कर्म करती हैं । मानव का अन्तिम लक्षय उस परम पिता की प्राप्ति ही होता है तथा उसकी यह इन्द्रियां उसे यह लक्षय पाने मे सफ़ल करती है किन्तु केवल तब जब उनकी लगाम को मजबूती से पकड रखा हो । अन्यथा यह उसे भटका देती हैं । अत: प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर आगे बटना होता है ।
३. उद्देश्यशील की इन्द्रियां गन्तव्य पावें
मानव के यह इन्द्रियरुप घोडे विशिष्ट परिग्रह से युक्त होते हैं । यह एक निश्चित तथा निर्धारित लक्षय को , ध्येय को लेकर चलते है , आगे बढते हैं तथा तब तक चलते चले जाते हैं , जब तक की गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर लेते । जब एक लक्षय निश्चित है तो मार्ग भटकने का इन्द्रियों को दूसरी ओर लगाने का तो इन के पास समय ही नहीं होता । सीधी स्पाट सडक पर जाना होता है ,मार्ग मे कहीं मुडना नहीं होता , इस कारण मार्ग कैसे भटक जावेंगे , एसा तो उसके लिए सम्भव ही नहीं होता । अत: एक निर्धारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली यह इन्द्रियां गन्तव्य पर जाकर ही सांस लेती है तथा निश्चित रुप से इसे पा लेती हैं ।
४. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
इनका उद्देश्य एक विशिष्ट उद्देश्य होता है । पूर्व निर्धारित उद्देश्य को इन इन्द्रियों ने प्राप्त करना होता है । इस निर्धारित उद्देश्य के कारण ये तेजस्वी होकर तीव्र गति से चल कर इसे पाने के लिए पुरुषार्थ करती हैं , प्रयास करती हैं । तेजस्वी हो कर कार्य मे लग जाती हैं । इन का रक्त वर्ण यह स्पष्ट कर रहा होता है कि यह तेजस्वी है , यह कर्मशील हैं , यह अपने निर्धारित गन्तव्य को पाने के लिए यत्नशील हैं । इसकी ही आभा , इसकी ही तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई देती है ।
५. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
जब एक निर्धारित लक्षय होता है तो मार्ग की बाधाएं इनके मार्ग को रोक नहीं पातीं । इनमें इतनी शक्ति आ जाती है कि मार्ग के सब शत्रुओं को , मार्ग की सब बाधाओं को यह बडी सरलता से नष्ट कर दे्ती हैं । किसी प्रकार का विघ्न , किसी प्रकार की मार्ग की बाधा तथा किसी प्रकार का मार्ग का शत्रु इसके सामने आते ही नष्ट हो जाते है , मारे जाते है ,दूर हो जाते हैं । इस प्रकार यह सदा प्रगति की ओर , उन्नति की ओर अपने उद्देश्य प्रप्ति की ओर निरन्तर तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई दे जाते हैं ।
६. इन्द्रियां मानव की अनुगामी हों
इस प्रकार वश में की गई इन्द्रियां जब एक निश्चित लक्षय को पाने के लिए अपने आगे चलने वाले मानव की अनुगामी होती हैं तो वह निरन्तर उसे आगे तथा आगे ही ले जाते हुए ,उसे लक्षय तक ले जाती है । यह बडी सफ़लता से उसे लक्षय तक ले जाने वाली होती हैं । जब मानव में अग्रगति की , आगे बढने की , सफ़लता पाने की , विजयी होने की भावना है तो फ़िर उसकी इन्द्रियां भी उसके पीछे चलने वाली होती हैं । एसे मानव की इन्द्रियां विषयों में भटक ही नहीं सकतीं बल्कि निरन्तर उसके पीछे चलते हुए आगे की ओर बढती ही चली जाती हैं । अन्त में उसे सफ़लता दिलाने वाली बनती हैं ।
डा. अशोक आर्य
OUM..
ARYAVAR, MNAMASTE…
AAPKI LEKH BAHOOT KOJ MULAK AUR SHIKSHAA PRAD HAI…PADH KE ANTARMAN KO SHAANTI MILTI HAI…
DHANYAVAAD…